________________
ध्यान : प्रकृति और प्रयोग
जीवन संगीत है, विसंगीत भी; उत्सव है, घुटन भी । घर में माँ की गोद में मुस्कुराते और किलकारी भरते बच्चे के चेहरे पर मुखर है जीवन का संगीत, परम तृप्ति का उत्सव । संगीत पैदा करने की कला आ जाये तो जीवन स्वर्ग-उत्सव की ओर अभिमुख हो सकता है । आम आदमी के लिए तो जीवन संगीत-का-विपर्यय और दुःख-का-दलदल है । जीवन के प्रति संकुचित और मृत दृष्टि ही आत्म-हत्या की प्रेरिका बनती है । उसके लिए आत्म-हत्या असम्भव है, जो जीवन की प्रसन्नता और सहजता में सराबोर है ।
मनुष्य जन्म से जीवन की यात्रा प्रारम्भ करता है । वह जीने में जी तो रहा है, किन्तु जीवन के पाठ कहाँ पढ़ पाता है । उसके दस्तावेज कदम-कदम पर रखे पड़े हैं, उन्हें आत्मसात् करना जीवन के रहस्य-दर्शन का उद्घाटन है, ठोकर लगने से पहले सम्हल जाने की भूमिका है ।
आदमी पिस रहा है अहर्निश चक्की में । दिन की जागरूकता दुकान-दफ्तर में पूरी होती है और रात की वेला खाट पर खुर्राटे में । जीवन की राह पर चलते सभी हैं, परन्तु जीवन का जीवन्त सार विरले ही बटोर पाते हैं । लोग रोते हैं मरघट की यात्रा में, उसकी आँखें भीगी हैं (दिया कबीरा रोय) जन-जीवन के विसंगीत से, 'दो पाटन के बीच में' ।
दुःख से गैर-दुःख में और गैर-दुःख से दुःख में, स्वप्र से गैर-स्वप्न में और गैर-स्वप्न से स्वप्न में- इस संघर्ष-लय में ही व्यक्ति दो मुँहा मानव बना हुआ है । रंगे हुए मुखौटे पहनने का अब तो वह इतना अभ्यस्त हो गया है कि पाउडर लिपस्टिक की परत-दर-परत के नीचे दबा मैल धोने की याद भी नहीं आती । मुखौटे रोजमर्रा की जिन्दगी से भरपूर जुड़ गये हैं । अपना मौलिक चेहरा तो पता नहीं कहाँ छिपा पड़ा है । हमें ढूंढ़ना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org