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समाधि का प्रवेश-द्वार
१६६ ध्यान में सब कुछ आ जाते हैं, श्रद्धा भी, स्मृति भी, संकल्प भी, प्रज्ञा भी । अलग-अलग शब्द तो इसलिए परोसे गये हैं, ताकि बारीकी को अलग-अलग ढंगों से देख सको, जान सको । वैसे मूलतः तो ध्यान की जरूरत है; मन को केन्द्रित करने की जरूरत है । जहाँ मन टिका, उसके प्रति श्रद्धा भी होगी, उसके लिए वीर्य/पुरुषार्थ भी होगा, उसकी स्मृति/याद भी आएगी । समाधिस्थ/निमग्न भी रहोगे । बुद्धि से उसका रिश्ता भी होगा । सिद्धत्व तो सबका संगम है, किन्तु सबों का लक्ष्य और आधार तो एक ही है । अमृत सबसे जुड़ा हुआ है और अमृत ही सबका परिणाम है ।
श्रद्धा का सम्बन्ध हृदय से है । वीर्य अर्थात् सामर्थ्य का सम्बन्ध शरीर से है | स्मृति का सम्बन्ध मन से है और समाधि-प्रज्ञा का मस्तिष्क से, निर्मल बुद्धि से । गीता के श्लोक भी इस तथ्य की पुष्टि करेंगे । आगम और पिटक भी यही कहेंगे । मजहबों और शास्त्रों की अनेकता को देखकर मार्ग को अनेक मत मान लेना । जीवन का द्वार तो वही है और सब ले जाना चाहते भी हैं उसी द्वार पर । शब्दों और अभिव्यक्तियों का विभेद कोई अर्थ नहीं रखता । मूल्य तो जीवन का है, जीवन की परम जीवन्तता आत्मसात् करने का है ।
श्रद्धा का अर्थ है समर्पण । श्रद्धा वह भावना है, जिसमें हृदय की नौका चलती है । समर्पण हो- न सिर्फ साध्य के प्रति, वरन् साधन के प्रति भी । श्रद्धा ही तो शिष्यत्व की सही पहचान है । शिष्य अगर सही है, तो सद्गुरु चाहे उससे सैंकड़ों कोस दूर भी क्यों न हो, उसे आना ही पड़ेगा । श्रद्धा सिद्धान्तों का ढिंढोरा पीटना नहीं है । इससे तो श्रद्धा को उल्टा खेद होता है । श्रद्धा तो तरंग है, जीवन का आभामण्डल है । श्रद्धा न केवल शिष्य को तंरगित करेगी, वरन् जो भी उसके सम्पर्क में आएगा, वह भी श्रद्धा के प्रकाश से भरेगा ।
श्रद्धा सुषुप्ति है । नींद आते ही आदमी दुनिया से बेखबर हो जाता है । उसे मित्र की तो चिन्ता रहती ही नहीं है, शत्रु की भी वह चिन्ता नहीं करता । नींद बड़ी मीठी होती है । श्रद्धा नींद है । नींद से बेहतर मिठास और कहाँ, जिसमें आदमी सुख-दुःख, भूख-प्यास, अमीरी-गरीबी, सब भूल जाता है,
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