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समाधि का प्रवेश द्वार
१६७ हर मनुष्य जन्म के साथ एक घेरे में जीता है । उसे बना-बनाया घेरा मिलता है, चोर है तो चोरी का और व्यवसायी है तो व्यवसाय का । हर व्यक्ति का घेरा बंधी-बंधायी लीक की तरह है । लीक तोड़ो
और नये नीड़ का निर्माण करो । अगर घेरे में ही जिओगे तो तुम्हें अपनी ज़िन्दगी में वही विरासत में मिलेगा, जिसमें तुम बड़े हुए हो । विरासत तो पराश्रय है । जो हो रहा है, बपौती के कारण हो रहा है । हमारी मौलिक क्षमता और सम्भावना तो राख की देरी के नीचे दबी पड़ी है । हम अपना एक नया रूप ले सकते हैं । एक नई परम्परा बना सकते हैं । अपनी क्षमताओं का गला मत घोटो । क्षमताएं जीवन्त हैं और उनकी जीवन्तता का जीने में भरपूर उपयोग करो । आखिर चक्रव्यूह को तो भेदना ही होगा । संघर्ष करना है, मौत से घबराना नहीं है । अभिमन्यु की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कह सकते । वह तो दुनिया के लिए आज़ादी-का-पैगाम है । कुछ नया होने के लिए कुछ पुराने को छोड़ना ही होगा । जरूरत है सिर्फ साहस की, बुलंद हौसले की ।
जो घेरा हमें बना-बनाया मिला है विरासत के रूप में, उससे चिपके रहना तो अध्यात्म की भाषा में राग है । केवल लिफाफों को चिपकाने का काम ही करोगे या उन्हें खोलोगे भी ? खुद के द्वारा जैसा भी होगा, जो भी होगा, वह हमें और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगा । आखिर अपने बनाये पद-चिन्हों को देखने का मजा ही कुछ और होता है । यह मजा आनन्द है । यह आनन्द सिर्फ उसी व्यक्ति से जुड़ सकता है, जो आत्म-केन्द्रित हो गया है ।
आत्म-केन्द्रीकरण का नाम ही निजत्व और बुद्धत्व का सर्वोदय है और उसका विकेन्द्रीकरण संसार-के-घेरे-का-निर्माण । बुद्धत्व का बोध जीवन की महान उपलब्धि है, जीवन की गहन-से-गहन और ऊँची-से-ऊँची सम्भावनाओं का आविष्कार है ।
ज्ञान-बोध सिर्फ सच्चाई के आलोक का दर्शन ही नहीं कराता, वरन् स्वयं व्यक्ति को रोशन और ज्योतिर्मय कर देता है । यह व्यक्ति की अर्हत-अवस्था है । यह परा-पहुँच है | यहाँ तक पहुँचने के लिए दो तरह के व्यक्ति होते हैं । एक तो वे, जिनमें जन्मजात यह प्रतिभा होती है ।
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