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चलें, मन-के-पार
१५६ कदम-दर-कदम बढ़ाना है ।।
__ अधिकांश साधकों की यह समस्या रहती है कि वह ध्यान के प्रति अभिरुचि होने के बावजूद समाज/संसार को छोड़ नहीं पाते । मेरी समझ से छोड़ना आत्यन्तिक अनिवार्य नहीं है । छूट जाए तो कोई नुकसान नहीं है । न छूटे तो परेशान होने की भी जरूरत नहीं है। आखिर यह परेशानी भी एक सलौने ढंग का तनाव ही है । ध्यान तो हर तनाव के पार है । तनाव से अतिमुक्त करना ही ध्यान-का-दायित्व है ।
तृप्ति' (मूल नाम : ट्राडिल ऑटो, ध्यान-दीक्षित नाम : तृप्ति; बर्लिन, वेस्ट जर्मनी) भी इसी तनाव में उलझी । महावीर को पढ़ा तो महावीर से प्रभावित अवश्य हुई; वह सोचती है कि मैं महावीर के ध्यान-मार्ग पर तो चलूँ, किन्तु समाज से अलग-थलग होकर नहीं ।
___ मैं तो कहूँगा तृप्ति समझी नहीं । महावीर विद्रोह के सूत्रधार नहीं, बोध के सूत्रधार हैं । महावीर खूब रहे, सो जंगलों में रमे और जब साधना सध गई तो शहरों में लौट आये । महावीर बन सको तो अच्छा ही है, पर हर आदमी महावीर की तरह जंगलों में जाकर नहीं रह सकता । अगर हर आदमी जंगलों की तरफ कदम बढ़ा ले तो जंगल भी शहर का बाना
ओढ़ लेंगे । स्थान बदल जाएँगे, वस्तु-स्थिति के बूंघट नहीं उघड़ेंगे । स्थान-परिवर्तन मात्र से तो शहर जंगल बन जाएँगे और जंगल शहर ।
स्थान के बदलने मात्र से आदमी नहीं बदल जाता । मुखौटों के बदलाव से स्वभाव में बदलाव कहाँ आता है ! मांसाहार छोड़ने से हिंसा मरती नहीं है, किन्तु हिंसा को मन से देश निकाला दिये जाने के बाद मांसाहार को छूटना ही पड़ता है । इसलिए भीतर के परिवर्तन में अपना विश्वास-प्रस्ताव पारित करो । क्या नहीं सुना है तुमने कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा ?' अगर अन्तरंग को न बदल पाये तो सारा बदलाव गीदड़ द्वारा हिरण की खाल ओढ़ना है । स्वयं को अन्तर-जगत में निर्विष किए बिना किया गया आचरण बिच्छु का तार्किक संवाद है ।
___ ध्यान स्वयं को देखना है, स्वयं के द्वारा देखना है, स्वयं में देखना है । इसलिए ध्यान पूरे तौर पर अपने आपको हर कोण से ऊपर उठाकर
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