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चलें, मन-के-पार श्रमण-परम्परा के अनुसार अरिहन्त का वाचक है । इसलिए 'ॐ' अर्हत्-मनीषा का मूल प्रतीक है।
'अ' प्रथम स्वर है, तो 'उ' हिन्दी के अनुसार तो छठा अक्षर है और संस्कृत के अनुसार 'उ' तीसरा स्वर भी है और पांचवां स्वर भी है । 'उ' स्वर ऊर्ध्वगामी होता है । 'उ' ठेठ नाभि से निपजता है । 'उ' का काम है मानसिक वेदना और व्यथा को व्यक्ति से अलग करना । सम्पूर्ण 'ॐ' में 'उ' ही ऐसा वर्ण है, जिसके उच्चारण से शरीर के सारे अवयव प्रभावित और स्पन्दित होते हैं । यदि कोई व्यक्ति मानसिक तनाव से घिर जाये, तो उससे मुक्ति के लिए वह 'उ' का जोर-जोर से उच्चार करे । 'उ' को वह इस प्रकार बोले कि मानो वह सिंहनाद कर रहा हो । यह प्रयोग व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर डालेगा । शरीर पसीना-पसीना होने लगेगा । जब 'उऽ', 'उऽ' करते थककर चूर हो जाओ तो शान्त हो जाना । पहले दस मिनट तक तो बोलना और अगले दस मिनट तक शान्त पड़े रहना ।
___ 'उ' का यह वेदना-मुक्ति हेतु किया जाने वाला मन्त्रयोग है, ध्यान का एक मार्ग है । एक नयी ताजगी देगी यह प्रक्रिया । शरीर को तन्दुरुस्त व मन को स्वस्थ पाओगे ।
'ॐ' का अन्तिम वर्ण 'म्' व्यञ्जन-वर्ग का आखिरी सोपान है । जो 'अ' से चालू हुआ, 'उ' की ऊंचाइयों को छुआ और 'म' तक पहुँचा, उसने मंजिल पा ली । 'अ' से 'म' की यात्रा 'ॐ' की यात्रा है । और 'ॐ' की यात्रा परमात्मा की यात्रा है । परमात्मा 'ॐ' से कभी अलग नहीं हो सकता । 'ॐ' में ही समाया हुआ है परमात्मा । ब्रह्म-बीज है यह । 'ॐ' से ही निकली है सारे महापुरुषों और धर्म-प्रवर्तकों की रश्मियां । भूमा होने का अर्थ ही यही है कि व्यक्ति ने विराटता को प्राप्त कर लिया । एक बात तय है कि 'ॐ' सबसे विराट है । 'ॐ' से अधिक विराट नहीं हुआ जा सकता । इसलिए जो 'ॐ' हो गया, वह अरिहन्त हो गया । 'ॐ' होना ही 'हरि ॐ' होना है । 'ॐ' से ही यात्रा की शुरुआत है और 'ॐ' से ही उसका समापन । बिना 'ॐ' की साधना अपंग है।
'ॐ' और 'स्वस्तिक' का बड़ा गहरा सम्बन्ध है । 'ॐ' यदि भारत की
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