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ॐ : मन्त्रों का मन्त्र अखबारों को पढ़ने में रोजाना अपने दो-चार घण्टे बरबाद करते हैं । अखबार राजनीति-की-शतरंज मात्र बन गया है । पता नहीं, उन्होंने संन्यास निःशब्द और निर्विकल्प होने के लिए लिया है, या अपने अन्तर्जगत को शब्दवेत्ता और विचारक बनाने के लिए । धर्मशास्त्र पढ़ते तो बात जचती भी । मुझे बड़ा ताज्जुब होता है जब मैं किसी सन्त-मुनि को महज व्याकरण के सूत्र रटते हुए देखता हूँ । वह मुनि जीवन के दस-बारह साल तो संस्कृत के व्याकरण सूत्रों को रटने और सीखने में लगा लेता है । अरे भाई ! तुम्हें तो मुनि बनना है, पण्डित नहीं । पण्डित तो प्रोफेसर बहुत हैं, किन्तु वे प्रोफेसर मुनि नहीं हैं । सन्तत्व तो जीवन की सम्राटता है, स्वयं के अहोभाव में डूबना है ।
मैंने पाया है, एक साठ वर्ष के वृद्ध व्यक्ति ने सन्यांस लिया और दूसरे दिन ही उसके गुरु ने उसे पाणिनी का व्याकरण पकड़ा दिया । अब बिचारा वह बूढ़ा सन्त सुबह-शाम 'अइउण्, ऋलुक्' जैसे सूत्रों को रट रहा है । मृत्यु उसके सामने खड़ी है । क्या वे भाषा-पढ़ाऊ सूत्र उसे बचा पाएंगे, डूबते के लिए तिनका का सहारा बन जाएंगे ? आचार्य शंकर कहते हैं
भज गोविंदम्, भज गोविंदम्, भज गोविंदम् मूढमते । सम्प्राप्ते सन्निहिते काले, नहि नहि रक्षति डुं-करणे ।।
मात्र शब्दों के भार से अपने को मत भरो । अनाहत नाद तो निःशब्दता को, पहली शर्त मानता है । यदि शब्द को ही साधना है, तो उस शब्द को पकड़ो जिससे सब प्रकट हुए हैं
साधौ सबद साधना कीजै । जेहि सबद ते प्रगट भये सब, सोई सबद गहि लीजै ।।
उसी परम शब्द को पकड़ो, ॐ को ही साधो । ॐ को ही जपो । ॐ की ही प्रतिध्वनि सुनो । ॐ में ही रस लो । ॐ में बड़ा आकर्षण है । 'रसो वै सः' वह रस रूप है । परमात्मा रस रूप है । 'ॐ' परमात्मा है, उसमें डूबो । रोम-रोम से उसी का रस पियो ।
'ॐ' ध्यान की मौलिक ध्वनि है | 'ॐ' का ध्यान हम चार चरणों में पूरा कर सकते हैं । इन चार चरणों का कुल समय पैतालीस मिनट
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