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चलें, मन-के-पार महावीर इसे सम्बोधि कहते हैं । बुद्ध स्मृति कहते हैं । यहाँ स्मृति ही आत्म-स्मृति बन जाती है । रणभेरी सत्संग का काम कर जाती है । जहाँ सम्बोधि, वहीं अनुभव का सार मिल गया समझो । आत्म-स्मरण की रणभेरी बजते ही सत्संग की रणभेरी भी बजने लगती है । व्यक्ति अपने
आपको पहचान लेता है । एक रणभेरी की आवाज सुनकर हाथी बाहर निकल आया था । रणभेरी तो बजा रहा हूँ । मगर तुम अभी तक सही योद्धा ही नहीं बन पाए हो । इसलिए तुम रणभेरी नहीं समझ पाओगे, तुम भगवान को कैसे पाओगे ।
जो आदमी भगवान को पाने के बाद भी उसकी भगवत्ता का अनुभव नहीं करता, वह रस से अछूता है । अपने आपको सम्भालो । कोई कितना भी बलवान हो उसका अन्तिम नतीजा तो यही होने वाला है । इसलिए स्मृति को जीवित करो । रणभेरी बज रही है, सत्संग की रणभेरी । उसे समझने की चेष्टा करो । अपने आपको पूछो मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ, मेरा क्या होगा ? जीवन का मूल उद्देश्य क्या है ? ये प्रश्न कभी एकान्त में अपने आपसे पूछो । जीवन का अनुभव क्या बटोरा ? सार क्या है ? पैदा हुए वैसे ही मर गये, तो दुनिया में आने का औचित्य क्या रहा ?
जिन्दगी सरिता है । बहती जा रही है । बहते-बहते सागर में मिल जाएगी । विलीन होने से पूर्व अपने आपको पहचान लो । मेरा स्वरूप क्या था ? कहाँ से आया ? मुझे किससे सम्बन्ध रखना है ? किससे प्रतिकार करना है ? - ये कोरे प्रश्न नहीं हैं, स्वयं के प्रति जिज्ञासा है । अपने आपसे यह पूछना कि 'मैं कौन हूँ' मन का अध्यात्म-में-विलय है । मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ- अपने आप से ही यह पूछताछ करनी है । मैं कौन हूँ इसका उत्तर कोई गुरु न दे पाएगा । 'मैं' ही बता पाता है 'मैं' का उत्तर । इस प्रश्न को, इस जिज्ञासा को अपना मन्त्र बना लो और मन्त्र को अपने अन्तरंग में गहरे तक उतरने दो । ऐसा नहीं कि एक सौ आठ बार गुना/जपा कि मालाओं की दस-बीस की गिनती में लग गये । और मन्त्र तो शाब्दिक होते हैं, परन्तु यह मन्त्र तो ज्ञानपरक है । एक
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