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संबोधि का कारण
जिन्दगी में जिन्दगी से बढ़कर कोई मूल्यवान चीज नहीं है । जीवन की सारी विराटता के गुण जिन्दगी से ही जुड़े हैं | अतीत हो या भविष्य, हमारे जीवन से ही जुड़े हुए हैं । नरक से स्वर्ग तक के सारे ताने-बाने जिन्दगी से ही सटे हैं । जीवन का अर्थ- जन्म से मृत्यु के बीच का विस्तार ही नहीं है, बल्कि जीवन वह है जो मृत्यु के पार भी जीवित है ।
मृत्यु का किसी भी देहरी से स्वागत हो, वह चाहे जिस रूप में हमारे सामने आए, जीवन का सम्बन्ध तो जन्म से पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा । 'जीवन' की कभी मृत्यु नहीं होती । मृत्यु तो रूप और चोले की होती है । वह तो परिवर्तन की दास्तान है । कोई साधक शिखर तक की यात्रा कर ले, सिद्धत्व की भी यात्रा करले तब भी जीवन तो सिद्धत्व के शिखर पर ही रहता है । सिद्धि पाने का अर्थ केवल इतना ही है । मुक्ति पाने का अर्थ यही है कि जिन्दगी जन्म और मृत्यु की धूप-छाँह से मुक्त हो गई । धूप-छाँह के खेल से, दुर्गन्ध और सुगन्ध के वातावरण के बीच से व्यक्ति को जहाँ मुक्ति मिल जाती है, वहीं व्यक्ति की जिन्दगी में उस 'जिन्दगी' का निवास हो जाता है जिसे मर्त्य के पारे अमर्त्य/अमृत का विहार कहेंगे । वहाँ केवल पाप ही नहीं, पुण्य से भी मुक्ति मिल जाती है । वहाँ जिन्दगी के मधुरिम गीत हमें सुनाई देने लगते हैं।
जीवन की साधना और साधु-कर्म यही है कि आदमी पुण्यातीत हो जाए | जो धर्म हमें पाप से ही नहीं, पुण्य से भी बाहर ले जाए, वही हमारे लिए साधक और सिद्धि का कर्म है | जीवन में जो छोटी-छोटी घटनाएँ घटती हैं, उनसे भी असीम के संकेत पा लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है | बुद्धिमत्ता की पहचान भी यही है कि जो क्षुद्र में भी विराट की छांह देख ले |
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