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चलें, मन-के-पार संन्यास-के-द्वार पर कदम रखने से पहले इतना तो बोध हो ही जाना चाहिये, जिससे व्यक्ति अपनी तृष्णा को समझ सके, मूर्छा से आँख खोल सके । ठीक है, संन्यास 'चरैवेति-चरैवेति' का आचरण है, पर चलेगा वही जो सोने से धाप गया, जगकर उठ बैठा है । संन्यास देने के बाद किसी की मूर्छा तुड़वाने का प्रयास बड़ा खतरनाक है ।
__ भगवान बुद्ध के छोटे भाई का नाम था नन्द । विवाह दोनों ने किया । नन्द का मन तो सौन्दर्य-प्रेमी था, किन्तु सिद्धार्थ ने मोक्ष-मार्ग में अपना मन लगाया । एक दिन रात के समय अपनी पत्नी को सोये हुए छोड़कर सिद्धार्थ वन में चला गया । सिद्धार्थ की यह चूक भी रही और करुणा भी । सिद्धार्थ ने तपस्या की और बोधि-लाभ प्राप्त किया ।
सिद्धार्थ धर्म का उपदेश देने के लिए गये, किन्तु उनका उपदेश सुनने के लिए नन्द न आया । वह महल में अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहा था । एक बार नन्द प्रेमवश पत्नी-का-शृंगार करने लगा । उसी समय सिद्धार्थ भिक्षा के लिए उसके घर आये । नन्द का ध्यान उस ओर न गया और सिद्धार्थ भिक्षा पाये बिना ही लौट गये । एक परिचारिका ने सिद्धार्थ के वापस लौटने की सूचना नन्द को दी । नन्द ने अपनी पत्नी से कहा कि मैं गुरु को प्रणाम करने के लिए जा रहा हूँ । पत्नी के शरीर पर आलेपन किया हुआ था । उसने प्यार से कहा कि आप जायें, मगर मेरा यह गीला आलेपन सूखे, उससे पहले ही लौट आयें ।
प्रणाम करते वक्त सिद्धार्थ ने नन्द को अपना भिक्षा-पात्र थमा दिया । नन्द ने भिक्षा-पात्र पकड़ तो लिया, वह शर्म के मारे उनके साथ भी चल पड़ा, लेकिन रह-रहकर अपनी पत्नी और उसके निवेदन की याद आने लगी । सिद्धार्थ ने उसे उपदेश दिया और उसे भिक्षु बना डाला । नन्द संकोचवश मना न कर सका । नन्द का मन भीतर से रो रहा था । आखिर इसने साहस करके ऐसा करने से मना कर दिया, पर सिद्धार्थ ने आँख दिखाते हुए कुछ कठोर भाषा में कहा, 'मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ । मैंने प्रव्रज्या ले ली और तुम अभी भी संसार में हो ।' नन्द घबराया । वह कुछ न बोल पाया । वह छटपटा रहा था, किन्तु उसका मुंडन कर दिया गया, भिक्षु के काषाय-वस्त्र पहना दिये गये ।
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