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चलें, मन-के-पार प्रवृत्ति जीवनं के लिए कर्मठता का अवलम्ब जरूर है; किन्तु निवृत्ति का उपसंहार पढ़ना अपरिहार्य है । निवृत्ति इसलिये कि एक दिन मनुष्य को सब यहीं छोड-छाड़ कर खालिस एकाकी जाना पड़ता है । रवानगी का टिकट मिलने के बाद जलाने वाला पूरा समाज-का-समाज होता है, मगर साथ जलने वाला सारे जहान का एक भी सदस्य नहीं होता । उसकी चिता में रुपये-पैसे भी नहीं, मात्र थोड़ी-सी सूखी लकड़ियाँ ही जलती हैं -
चार जने मिलि खाट उठाये, रोवत ले चले डगर डगरिया । कहे 'कबीर' सुनो भई साधो, संग चली वह सूखी लकरिया ।।
जीवन में घटित होने वाली यह मृत्यु हकीकत नहीं, मात्र मन की आपाधापी का विराम है, उसकी व्यर्थता का बोध है । अगर किसी एक जन्म में आत्मा, परमात्मा या अध्यात्म को पहचान न पाया; परन्तु निरे मन का परिचय-पत्र भी बारीकी से पढ़-जाँच लिया, तो भी यह कहा जा सकेगा कि उसने मंजिल की ओर जाने वाली राह का एक बड़ा हिस्सा पार कर लिया ।
व्यक्ति को शरीर और विचार की समझ तो पल्ले पड़ जाती है, पर वह मन की पूँछ को थाम नहीं पाता । दौड़ते चोर की चोटी पकड़नी भी फायदेमन्द होती है, पर पहले चोर की पदचाप तो सुनाई दे । ओर-छोर का पता नहीं और नापने बैठे हैं आसमान ?
मन तो चपल है पल-पल | यदि मन स्वयं ही जीवन हो, तो उसके पालन के लिए घर-बार और दुकानदारी की व्यवस्था की जानी चाहिए । अगर मन मुर्दा हो, तो उसे दफनाने के लिए सूखी लकड़ियां बीनने में संकोच कैसा ? चाहे पालना हो या दफनाना, उसकी वास्तविकता का बोध होना स्वयं के प्रति सजगता है ।
मन की उपज शारीरिक रचना की अनोखी प्रस्तुति है । कई परमाणुओं के सहयोग और सहकार से शरीर का ढाँचा बनता है । मन उसमें ठीक वैसे ही मुखर होता है, जैसे शराब की निर्मिति से मदहोशी/नशा । जिन चिन्तकों ने जमीन-जल, पावक-पवन के समीकरण से उपजने वाले तत्त्व को जीवन-तत्त्व, आत्म-तत्त्व स्वीकार किया, वह वास्तव में जीवन या आत्म-तत्त्व
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