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चलें, मन-के-पार हर चीज की तीन अवस्थाएँ होती हैं- प्रकृति, विकृति और संस्कृति । आप एक चावल को लीजिये । बाजार में वह जिस रूप में मिलता है, उसकी वह अवस्था उसकी प्रकृति है । यह अवस्था उसे प्रकृति से मिलती है । आप उसे अपने उपयोग के लिए अपने घर लाते हैं । अपने उपयोग के लिए उसे हंडी में पकाते हैं । जब वह पक जाता है उसमें अच्छे संस्कार आ जाते हैं, तो चावल की यह अवस्था उसकी संस्कृति है । इस संस्कृति को लाने के लिए मनुष्य को श्रम करना पड़ता है । थोड़ा-सा भी ध्यान डिग जाये, तो चावल जल सकता है या अधिक गलकर अपना अस्तित्व ही मिटा देता है । इस तरह उसमें अनेक विकृतियाँ आ सकती हैं । वस्तु में विकृतियों के आने के अनेक प्रवेश-द्वार हैं । वह कीड़ों का शिकार हो सकता है, सड़ सकता है, गल सकता है, जल सकता है, और मिट्टी भी बन सकता है । मिट्टी के ढेले बड़े हत्यारे हैं । वे सबको निगलने के लिए सदा मुँह खोले रहते हैं ।।
मनुष्य भी इन तीनों दायरों से बाहर नहीं है । कभी प्रकृति, तो कभी विकृति, तो कभी संस्कृति के उतरते-चढ़ते सोपानों पर अपने चरण रखता है । मनुष्य स्वभाव से ही विकृति-प्रेमी होता है । उसे गन्दी बातों
और बुरे कर्मों में बड़ा मजा आता है । अच्छे शब्द और अच्छे कर्म उसे सीखने पड़ते हैं । सीखते समय उसका मन ऊबता है, उचटता है, भागता है । बड़ी देख-रेख और बड़े श्रम के बाद अच्छाइयाँ उसके व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित होती हैं । सभी चाहते हैं कि समाज में हम अच्छे कहलायें, सब हमारा सम्मान करें, सभी हमें सत्यवादी हरिश्चन्द्र माने । किन्तु ऐसा होता नहीं है । अच्छा बनना या अच्छा कहलाना बात-की-बात में नहीं होता । समाज इतना बुद्ध नहीं है । समाज तो जिसको जिस रूप में देखता है, उसका उसी रूप में मूल्यांकन करता है । अच्छे बनने के लिए हमें अपने विषपायी व्यक्तित्व को तलाक देना होगा और अमृतवाही व्यक्तित्व को अपना जीवन-साथी बनाना होगा । थामनी होगी हमें अपने व्यक्तित्व की ज्योतिर्मय मशाल को, जिसकी आभा में ही हम अपने मधुर और दिव्य स्वरूप को पा सकते हैं ।
व्यक्ति एक मशाल है । उस मशाल की आग ही व्यक्तित्व है ।
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