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खोलें, अन्तर के पट है । लोग जान लें कि पुजारी ने स्तोत्र-पाठ कर लिया है, ताकि पुजारी की दान-दक्षिणा में सुविधा रहे ।
प्रार्थना जोर से भगवान् को पुकारना नहीं है | प्रार्थना तो परमात्म-स्मृति है, अहोभाव है । हम मन्दिर इसलिए जाते हैं, क्योंकि वहाँ जाने से शांति मिलती है । पर जहाँ कोलाहल-ही-कोलाहल हो रहा हो, वहाँ शांति कहाँ ! मन्दिर जाओ, मौनपूर्वक, परमात्मा-की-स्मृति-से-भरे । काव्य-पाठ बहुत हो गये, अब खुद काव्य बनो । अब तो मौन साधो, मन-का-मौन, वृत्तियों-का-मौन । एक ऐसी गहन चुप्पी अन्तर्मन में उतरने दो, ताकि सुन सको अन्तरात्मा का वंशी-रव, पहचान सको परमात्मा का मधुरिम स्वर । आत्मा और परमात्मा के बोल इतने धीमे हैं कि उन्हें सुनने और पहचानने के लिए आदमी को गहन चुप होना होगा । इतना शान्त होना होगा, जितना ये हिमालय है, देवदार के वृक्ष हैं । परम मौन परम स्वरूप के परिचय की पूर्व भूमिका है ।
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