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खोलें, अन्तर के पट
विकल्प हमारे भीतर की वृत्ति है । जब तक वृत्तियों के पार न चलोगे, तब तक जीवन की वास्तविकता वृत्तियां ही लगेंगी | ‘वृत्ति-सारूप्यम्' (योग-दर्शन) वह वृत्ति के अनुरूप ही अपना स्वरूप समझेगा । यह आत्म-प्रवंचना है । जब तक ऐसा है, वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न हो पाएगा । ज्ञान-बोध के बिना मनुष्य अस्तित्वगामी नहीं, वरन् मन-का-अनुगामी होगा ।
__मनुष्य के पाँव चलते हैं एक दिशा में, मगर 'मनुआं तो दहुं दिसि फिरै' मन तो दसों दिशाओं में घूमता है । वह चक्रवर्ती है । उसकी पहुँच चारों ओर है । बड़ी-बड़ी हस्तियों को नतमस्तक रहना पड़ता है उसके राज-दरबार में । परन्तु एक ऐसा दरबार है, जहाँ उसका दबदबा नहीं है, एक ऐसी दिशा है- ग्यारहवीं दिशा- जहाँ वह नहीं पहुँचता वह दरबार व्यक्ति के अन्तस्तल में है । ग्यारहवीं दिशा स्वयं व्यक्ति के भीतर है । आठ दिशाएँ चारों तरफ हैं- पूर्व से ईशान तक, एक ऊपर है और एक नीचे, किन्तु ग्यारहवीं दिशा तो तुम स्वयं हो । वहाँ मन की कोई गति नहीं है । वहाँ का प्रवेश-द्वार है- अमन, मनोमुक्ति ।।
एक व्यक्ति चश्मुद्दीन था । उसकी आँख पर चश्मा लगा था; एक चश्मा हाथ में था । फिर भी वह एक चश्मा और खरीद रहा था । मैंने कारण पूछा, कहने लगा, एक चश्मा दूर के लिए है, एक नजदीक के लिए । मैंने पूछा, और ये तीसरा ? बोला तीसरे की जरूरत इन दोनों को तलाशने के लिए । मैंने कहा, तब एक चश्मा और खरीद लो । कहने लगा- वह किसलिए ? मैंने कहा, खुद को देखने के लिए, वह उपनेत्र भी चाहिये, जो दिखा सके तुम्हें मन के पार, निजता को ।
___ हमें देखना-ढूंढ़ना चाहिए वह लोक, जहाँ मन की गति नहीं है । जहाँ सिर्फ अन्तरदृष्टि एवं अन्तरतल्लीनता की गति है । पहचानें मन के व्यक्तित्व को और उजागर करें द्रष्टा-स्वरूप को, ज्ञाता-स्वरूप को, साक्षी-स्वरूप को | एक बात का ध्यान रखें कि मन स्वयं कोई ऊर्जा नहीं है । वह तो मशीन है । जब मनुष्य उसे ऊर्जा देता है, तो वह गतिशील होता है । यदि गाड़ी को धक्का लगाना बन्द कर दो, तो वह आपोआप ठप्प हो जाए । गाड़ी को रोकना भी चाहते हो और धक्का भी लगातार
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