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________________ छवि स्वत: मन में हो जाती है । वैसे ही हम किसी ज्योति, पुष्प, मूर्ति या इसी तरह के किसी अन्य तत्त्व का चिन्तन करें तो वह तत्त्व भी हमारे भीतर आविर्भूत होगा । जब यहाँ तक हम विकास कर लें, तो नाभि या नासिकाग्र में अपनी दृष्टि एकाग्र करने का प्रयास करें। इससे भी चैतन्य जागरण में सहायता मिलती है । मन को एकाग्र करने में, शब्द श्रवण भी काफी उपयोगी रहते हैं । कानों में अंगुली डाल कर भीतर के शब्दों को सुनने का प्रयास करें | सर्वप्रथम भवरों का गुंजार या पक्षियों का कलरव सुनाई देगा, धीरे-धीरे मीरा के घंघुरुओं की थिरकन तुम्हारे मस्तिष्क में गूंजने लगेगी, घंघुरु बजेंगे, शंखनाद होगा, घंटे बजेंगे, ताल बजेगी, भेरी मृदंग और नफीरी की ध्वनि सुनाई देगी ! इस प्रकार के विभिन्न शब्द सुनाई देने पर 'ऊँ' भी भीतर गूंजने लगेगा । इसी 'ॐ' में से, तुम शून्य को प्रगट करोगे, उस शून्य का नाम ही ध्यान है, समाधि है | महावीर कहते हैं, स्थिर अध्यवसान-मानसिक एकाग्रता ध्यान है | महावीर सिद्धयोगी थे, ध्यान के मार्ग में काफी दूरी तय की थी और यह जो उनका सूत्र है वह बारह वर्ष की ध्यान-यात्रा का निचोड़ है । महावीर चाहते हैं व्यक्ति मन को एकाग्र करे, अनेक से एक में लौट आये, अहं में अहम् को पैदा करे ताकि वह समाधि के द्वार पर दस्तक दे सके । महावीर साधना का मार्ग भी ध्यान को स्वीकार करते हैं और मार्गफल भी । अगर महावीर की दृष्टि में हम ध्यान की महिमा को निहारना चाहें तो इतना ही कहना चाहूँगा जैसे, मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क महत्त्वपूर्ण है, वृक्ष में जड़ महत्त्वपूर्ण है, वैसे ही साधना के समस्त आयामों में ध्यान महत्त्वपूर्ण है | मन : चंचलता और स्थिरता/६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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