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अन्तिम घड़ी तक भी शास्त्रों के भार से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते'पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय ।'
महावीर, कबीर, तुलसी ये सब उन लोगों को लताड़ रहे हैं, जो मात्र व्याकरण के सूत्र रट रहे हैं, शास्त्रों का भार ढो रहे हैं । महावीर ऐसे लोगों के लिए, ज्ञानवादी शब्द का प्रयोग करते हैं । ज्ञानवादी वाद-विवाद कर लेंगें, शास्त्रार्थ में जीत जायेंगे, पर जीवन फिर भी खोखला का खोखला ही रह जायेगा । लड्डू - लड्डू कहने से अगर उदर-पूर्ति हो जाती, तो संसार भर की सारी मिठाई की दुकानों पर ताला लग जाता । उदरपूर्ति नामोच्चारण मात्र से नहीं, भोजन करने से होती है । वे लोग कैसे उदर-पूर्ति कर पायेंगे, जो केवल नाम ही रटते रहते हैं । ईसा कहा करते थे - 'वह हर कोई जो ईसा - ईसा पुकारता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पायेगा । स्वर्ग वह पायेगा, जो परम पिता की इच्छानुसार काम करता है ।'
एक व्यक्ति वह है, जो केवल परमात्मा का नाम स्मरण करता है और एक व्यक्ति वह है, जो परमात्मा की आज्ञा का पालन करता है । इनमें यथार्थतः परमात्मा की उपासना वही कर रहा है, जो परमात्मा की आज्ञाओं का पालन कर रहा है । अपने कर्त्तव्यों को छोड़, जो मात्र कृष्ण-कृष्ण रटता है, वह भला कृष्ण को कैसे पा सकेगा । आवश्यकता धर्म के कथन की नहीं, धर्म के परिपालन की है, क्योंकि धर्म की रक्षा के लिये ही तो स्वयं कृष्ण ने जन्म लिया था |
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सूत्र में कहा, 'ज्ञानवादी केवल वाणी की वीरता से ही अपने आपको आश्वस्त करते हैं ।' वाक् चातुर्य तो हर कोई हासिल कर सकता है, पर जीवन - संस्कार हर किसी के हाथ की बात नहीं है । जो केवल वाणी 1 की वीरता में जीते हैं, अगर जीवन निर्माण की प्रतियोगिता आयोजित की गई तो वे ज्ञानवादी पराजित हो जायेंगे । वे अगर कभी जीत भी पायेगें तो केवल गप्पे हाँकने में । ऐसी-ऐसी गप्पें हांकते हैं लोग, अगर सुनो तो हंसते रह जाओगे । आते हैं 'तूफान' में और कहेंगे 'राजधानी' से आया हूँ । प्लेट - फार्म पर उतरेंगे 'पैसेन्जर' से और कहेंगे 'शताब्दी' से आया हूँ । अपनी मान मर्यादाओं को बढ़ाने के लिये लोग इतना सफेद झूठ बोल जाते हैं, जिनका उनके जीवन के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है + वे केवल कह सकते हैं, कर नहीं सकते । वे स्वर्ण पदक
१५० / ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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