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पता लग जाए कि प्रकाश क्या होता है ।' उसने कहा, 'प्रभु ! यह तो अशक्य है । मैं नहीं जानता कि इसकी व्याख्या मैं कैसे करूं ।'
बुद्ध मुस्कुराए, कहने लगे, 'यही बात तो मैं तुमसे कहना चाहता कि प्रकाश की तो केवल अनुभूति और उपलब्धि ही की जा सकती
व्याख्या नहीं ।' अगर व्याख्या की गई तो उसमें तोड़ मरोड़ होगी और अधकचरा ज्ञान, अज्ञान से भी बदतर है । क्या तुम उसे ज्ञान कहोगे ? जब एक अंधे की समझ में यह आ जाए कि खीर, बगुले की गर्दन की तरह टेढ़ी होती है, तो वह उस खीर की परिभाषा हमेशा 'टेढ़ी खीर' ही करेगा । इसलिए कोई भी बुद्ध पुरुष अज्ञान के मार्ग से ज्ञान देने का प्रयास नहीं करेंगे ।
आज के सूत्र में महावीर ने जिस सत्य की चर्चा की, मैं भी उस सत्य की व्याख्या नहीं करूंगा, न परिभाषाएँ दूंगा। मेरी नजर में सत्य केवल शून्य है । और शून्य को केवल वही व्यक्ति उपलब्ध कर सकता है, जिस व्यक्ति ने कोरे कागज में भी सूत्रों को पढ़ने की कला जानी है |
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महावीर कहते हैं, 'सत्य में संयम का वास है, तप का वास है, समस्त गुणों का वास है । जैसे समुद्र मत्स्य आदि समस्त जलचरों का उत्पत्ति स्थान होता है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का उद्गम स्थल है। ' महावीर का यह वचन हमें बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करता है । एक तपस्वी, संयमी व्यक्ति भी परमज्ञान को उपलब्ध करने के पश्चात अपने संदेश में यही कह रहा है कि तप हो या संयम, सब कुछ सत्य में है । जैसे पानी के अभाव में मछली का अस्तित्व संभव नहीं है वैसे ही सत्य के अभाव में धर्म और अध्यात्म की संभावना नजर नहीं आती ।
सत्य की खोज में, अगर सागर में ऊपर-ऊपर तैरते रहे तो सिवा तिनकों के कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं है । डूबो, गहरे डूबो । बिना बोध के जो कुछ बाह्य आचरण की व्यवस्था की जा रही है, यह सब कुछ तैरना तो है, लेकिन उपलब्धि नहीं है । उपलब्धि गोताखोर को होती है। जितने अधिक गहरे उतरोगे, उतनी ही ज्यादा उपलब्धि होगी। अगर बाहर-बाहर तैरते रहे तो तिनके हाथ लगेंगे और गहरे उतरे तो मोती । बाहर की आंखे जो कुछ देख रही हैं, उसका अंतिम चरण अंधकार है और भीतर की आंखो से जो कुछ देखोगे उसका अंतिम
१३४ / ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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