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ही सब कुछ चलता रहा तो आने वाला कल ऐसा होगा, जब धर्म के द्वार मात्र पूँजीपतियों के लिए खुले रहेंगे । इसलिए महावीर कहते हैं कि 'सत्य में तप का वास है ।'
आखिर सत्य क्या है ? क्योंकि किसी का सत्य किसी के काम नहीं आया । दुनिया में जितने महापुरुष हुए, सभी ने 'सत्य' को ढूँढ़ने में ही अपनी साधना का उपयोग किया। आप जानना चाहते हैं कि 'सत्य' क्या है ? इसका कोई जवाब न होगा । यह बताया जा सकता है कि 'सत्य' को कैसे पाया जाए, क्योंकि सत्य को हमेशा स्वयं में खोजना होता है, उसे कोई दूसरा नहीं बता सकता और दूसरे का बताया हुआ सत्य कभी सत्य नहीं होगा, क्योंकि उसमें हम बार-बार प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहेंगे | तब ‘सत्य' भी संशय हो जाता जब उसमें प्रश्न चिह्न खड़े हो जाते हैं | इसलिए सत्य का अनुभव किया जा सकता है - समझाया नहीं जा सकता ।
सत्य क्या है ? सम्भव है इस प्रश्न का उत्तर दुनिया में तुम्हें, सिवाय तुम्हारे कोई न दे पाएगा ! अगर किसी को पूछने से ही सत्य ज्ञात हो जाता या शास्त्रों के संदर्भों में मिल जाता तो महावीर और बुद्ध सत्य की खोज में घर परिवार त्याग कर अनजान जंगल में न जाते । सत्य का न तो उपदेश होता है और न ही शास्त्र । जैसे प्रेम का को शास्त्र नहीं होता, विधिवत् प्रशिक्षण नहीं होता वैसे ही सत्य का कोई शिक्षाशास्त्र नहीं होता । प्रशिक्षित सत्य भला सत्य रह भी कैसे पाएगा ।
हम सत्य को खोजने में भी कतराते हैं और सोचते हैं कि पहले यह पता लग जाए कि सत्य क्या है, तत्पश्चात् तलाश करें। मुझे हंसी आती है लोगों की बचकानी बातों पर । अगर यह ज्ञात हो गया कि सत्य क्या है ? तो फिर तलाश का प्रयोजन ही क्या ? एक बात तय है कि सत्य कभी तर्क में पैदा नहीं होता, अपितु श्रद्धा में पैदा होता है। सत्य को आत्मसात करने के लिए अज्ञात में भी प्रवेश करना पड़ेगा, अंधेरे में भी जाना पड़ेगा और अपरिचित से भी मैत्री करनी पड़ेगी । इसलिए यह मत पूछो कि सत्य क्या है ? यह पूछो कि सत्य को पाने का मार्ग क्या है ? सत्य कोई सिद्धांत नहीं है, जिसे समझाया जा सके यह तो अनुभूति है । जीवन की जीवन्त अनुभूति, इसलिए इसे जीवन से तो प्रमाणित किया जा सकता है, शब्दों से नहीं |
कहते हैं, यीशु जब सूली पर लटकने जा रहे थे तो सूली लगाने से
१३० / ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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