________________
का कलेजा निकाला, थाली में रखा, कपड़े से ढाँका और रवाना हो गया ।
I
रात अंधेरी थी । मार्ग में ठोकर लगी, वह लड़खड़ाया और गिर पड़ा । वह कुछ सम्हलता उससे पहले ही आवाज आयी, 'बेटा! चोट तो नहीं आयी ।' चौंककर उसने इधर-उधर झांका पर वहाँ कोई न था ।
कुछ क्षण बाद फिर वही आवाज गंजी । उसने गौर किया, आवाज थाली में से आ रही थी; उस कलेजे से, जिसका अणु-अणु माँ की ममता से भरा था । वह जैसे ही थाली उठाने लगा कलेजा फिर गुनगुनाने लंगा, 'हाय रे लाल ! तेरे चोट तो नहीं आयी ।'
शायद उसके स्थान पर पत्थर होता तो भी पिघल जाता लेकिन इन्सान... ! पता नहीं किन कठोरतम और निर्दयी पलों में वह धरती पर आया था, न पिघला सो न ही पिघला । उसने थाली उठायी रवाना हो गया । प्रेमिका के घर पहुँचा, देखा, दरवाजे पर ताले लगा था | दरवाजे पर काले अक्षरों में लिखे वाक्य को पढ़कर वह हक्का-बक्का रह गया । उस पर लिखा था, 'जो अपनी माँ का नहीं वो हमारा क्या होगा ।'
इस दुनियाँ में ऐसे एक नहीं अनेक किस्से हैं । कामान्धता के कारण ही व्यक्ति उस हद तक गिरा है, जिस पर मानवता हमेशा शर्म करती है । इस देश में तब तक रावण जैसे लोग पैदा होते रहेंगे, सीता का अपहरण होता रहेगा, जब तक कामेच्छा पर लगाम न लगेगी । इसमें व्यक्ति जैसे-जैसे फंसेगा वैसे-वैसे धंसेगा । महावीर तट तक पहुँचाने की 1 कोशिश कर रहे हैं, उस किनारे तक जहाँ संसार पीछे छूट जाता है, दो कदम संन्यास की ओर बढ़ जाते हैं । .
आसक्त व्यक्ति श्रमण-धर्म को पहचान कर भी, आसक्ति छोड़ देता हो ऐसी बात नहीं है । जीवन के अन्तिम चरण में भी व्यक्ति की आसक्ति के महीन रेशे टूट नहीं पाते, महावीर और बुद्ध के वचनों का जो लोग - मखौल उड़ाते हैं, कहते हैं, इन्होंने कर्मयोग की हत्या की है, वे गलत सोचते हैं । महावीर कर्मयोग के विरोधी नहीं है । वे चाहते हैं हर व्यक्ति 1 अनासक्त कर्मयोगी बने, भरत और जनक़ की तरह । उस व्यक्ति को भला क्या कर्मयोगी कहा जायेगा, जो वृक्ष की एक टहनी पकड़कर लटका है । नीचे कुंआ है, कुंए में अजगर है, टहनी को चूहा काट रहा है । पल दो पल में टहनी टूटने वाली है । बचाने वाला कहता है, लो,
I
अनासक्तिः संसार में संन्यास / १०९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org