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________________ चित्त वैसे ही शान्त अडिग रहता है जैसे बगैर हवा में रखे दीये की लौ की होती है। प्रकाशवान और स्थिर । पूरी तन्मयता, उत्साह और निष्ठा के साथ योग का अभ्यास करें और धैर्यपूर्वक भगवत् भाव में, भगवत् स्वरूप में स्वयं को लगा दें। अन्तर-ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए व्यक्ति को ही वह आनन्द प्राप्त होता है, जो बादल की बूंदों की तरह खंड-खंड न हो, पहाड़ी झरने की तरह अनलहक, अनवरत हो। 'उद्धरेत् आत्म अनात्मानम् ।' अपना उद्धार स्वयं करो । जो स्वयं के उद्धार में लग गया, उसने स्वयं से मंगल-मैत्री कर ली । मनुष्य अपना शत्रु है यदि वह आत्मकल्याण के लिए समर्पित नहीं है। निज से मंगल-मैत्री स्थापित करना ही योग का ध्येय है, यही योग की भूमिका और उपसंहार है। निज से मंगल मैत्री | 79 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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