SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करना है, जब कि वह तुम्हीं करने लग गये । जब हम अपनी व्यवस्था खुद करने लग जाएंगे, तो परमात्मा हमारी चिंता छोड़ देता है । अच्छा होगा आसक्ति से मुक्त होने के लिए हम अपने हर कृत्य को परमात्मा को अर्पित करें। सुबह स्नान करें, तो भी इस भाव से कि ईश्वर को नहला रहा हूँ । तब शिवलिंग पर जल चढ़ाने से अधिक आनन्द आयेगा। अगर आप व्यापार करें, तो बड़े प्रेम से करें, पर यह भाव बनाये रखें कि यह व्यवसाय, व्यवसाय नहीं, परमात्मा की अर्चना का केन्द्र है । भगवान को भोग चढ़ाने के लिए मुझे इंतजाम करना है, इस भाव से कमाओ । केवल आसक्ति में उलझे रहे, तो जिन्दगी भर पैसा कमा लोगे, मगर वह पैसा अन्तर-सुख का आधार नहीं बन पायेगा । पैसा उपयोग के लिए है, जमा करने के लिए नहीं है और उपयोग इसलिए कि जीवन के लिए साधन जरूरी है। सबसे मिलो, प्रेमपूर्वक मिलो। प्रेम ही तुम्हारी श्रद्धा बन जाये; प्रेम ही तुम्हारी भक्ति और आशीष बन जाये, इतना प्रेम उंडेलो । देखो तो सही जीवन कितना सुनहरा बनता है । तब लगेगा कि हमारे लिये कोई बंधन, बंधन नहीं है; कोई भी संबंध आसक्ति नहीं है । हमारे लिए सारा अस्तित्व परमात्मा का पर्याय बनेगा; हमारा हर कृत्य एक पूजा होगी; हमारे हर कृत्य में एक अर्चना, एक प्रसन्नता, एक संपन्नता का भाव होगा। जीवन निष्पाप बनाये रखने के लिए, पाप से मुक्त होने के लिए संसार में ऐसे जीओ कि जैसे कमल जल में रहता है, फिर · भी निर्लिप्त बना रहता है । दूसरा सुझाव यह है कि आसक्ति के लिए हम अपना हर कृत्य परमात्मा के लिये संपादित करें। अपनी ओर से यही एक महान अर्चना होगी और यह अर्चना हमारे स्वयं के लिए, हमारी अपनी मुक्ति और हमारे परमात्म-स्वरूप को उपलब्ध करने के लिये होगी। कृष्ण का यही कर्म संन्यासयोग है। 62 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy