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________________ कर लेती है । हृदय किसी को अपने करीब देखे, फिर चाहे वह हजारों वर्ष पहले हुआ हो या ऊर्ध्व गगन में स्थित, वह पास ही है, उतना ही पास जितना हृदय हमारे पास है। ___'जागो मेरे पार्थ' न केवल एक अमृत उद्बोधन है वरन् स्वयं एक दर्शन है, यथार्थ और आदर्श का संगम है । कृष्ण का सांख्य और संन्यास भगवान महावीर तथा बुद्ध का ज्ञान और मौन है । कृष्ण की भक्ति और समर्पण सूर तथा मीरा की करताल और वीणा की झंकार है । 'जागो मेरे पार्थ' में वह ज्ञान और मौन एक श्रद्धा भरी झंकार के रूप में निनादित हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ की भाषा में बगैर भगवद्-कृपा के मनुष्य अपूर्ण है। गीता-प्रवचन एक ओर श्री चन्द्रप्रभ की सर्वतोभद्र भावना का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर विशद् ज्ञान मनीषा का । उन्होंने अध्यात्म-प्रिय भक्तों के बीच गीता के रहस्य को सहज मन से अभिव्यक्त किया है, इसलिए यह युग उन्हें धन्यवाद देता है। गीता भारत का आदर्श ग्रन्थ है । इसमें गृहस्थ और वानप्रस्थ दोनों के लिए मार्गदर्शन है। यदि हम गुणानुरागिता की दृष्टि से धर्म-मजहब का आग्रह रखे बगैर गीता और गीता जैसे ही अन्य आदर्श धर्मग्रन्थों तथा शास्त्रों का नित्य स्वाध्याय चिंतन-मनन करें तो चित्त-परिवर्तन का चमत्कार घटित हो सकता है, जीवन को नई विधायक दिशाएँ दी जा सकती हैं। हम सबको चाहिए कि हम अपने भीतर चल रहे महाभारत के आत्म-विजेता बनें, जितेन्द्रिय बनें । व्यक्ति और समाज के अभ्युत्थान के लिए हर व्यक्ति को श्रमशील होना चाहिये। ज्ञान जीवन के अभ्युत्थान के लिए है, अन्तर्मन में घर कर चुकी परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त होने के लिए है । व्यक्ति कर्ता-भाव से मुक्त हो, आसक्तियों का छेदन करे और एक अप्रमत्त कर्मयोगी होकर जीवन में श्रम और श्रामण्य का सर्वोदय होने का अवसर प्राप्त करे। प्रस्तुत ग्रन्थ 'जागो मेरे पार्थ' में यह भाव-भूमिका निःसृत और विस्तृत हुई है। गीता के रहस्यों को आत्मसात करने के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ को पहले आत्मसात् कर लिया जाये तो गीता के मार्ग और गंतव्य तक पहुँचने में बड़ी सुविधा रहेगी। परमात्मा के आशीष जन-जन का मंगल करें, यही मंगलकामना है। -महोपाध्याय ललितप्रभ सागर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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