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________________ आदमी के मन को जानते हैं। मनुष्य किस चालाकी से अंगुली पकड़ते-पकड़ते पूरा हाथ ही पकड़ लेता है, भगवान भी वरदान देते-देते यह बात समझ गये होंगे। सो भगवान ने कहा-ठीक है तुम जो चाहोगे वही मिल जायेगा, पर उससे दुगुना तुम्हारे पड़ोसी को भी मिल जायेगा। भक्त ने सिर पीटते हुए कहा-भगवान, मेरी आराधना व्यर्थ गई । अभी कौन-सा मैं भूखे मर रहा हूँ। मैंने तो पड़ौसी से आगे बढ़ने के लिये ही तो यह प्रार्थना, यह आराधना की थी। उसका ईष्यालु मन शान्त नहीं हुआ। वह खुद आगे न बढ़ सका, तो क्या, चलो पड़ौसी को तो पीछे धकेलें। उसने भगवान से प्रार्थना की कि मेरे घर के आगे एक कुआं खुद जाये, उसी समय पड़ौसी के घर के आगे दो कुएं खुद गये । उसने कहा-मेरी एक आंख फूट जाये। स्वाभाविक है पड़ौसी की दो-दो आँखें जाएंगी। पहले से कुआं और ऊपर से अंधा। मनुष्य अगर ईर्ष्या में पड़ेगा, तो नुकसान दोनों को पहुँचेगा। अगर मनुष्य विकास में विश्वास करेगा तो वह स्वयं तो विकास करेगा ही, औरों को भी विकास करने का पूरा-पूरा मौका देगा। तुम औरों से आगे बढ़ो, लेकिन यह ख्याल रहे कि इससे किसी को नुकसान न पहुंचे । तुम औरों को आगे बढ़ाने में 'त्याग' करो, उनके सहकारी बनो। इसलिए दूसरा सूत्र होगा-ईर्ष्या नहीं, अपने मौलिक विकास में विश्वास करो। तीसरा सूत्र है-जो हर्ष, शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला व्यक्ति कर्मयोगी है । कोई पूछे कि योग क्या है ? श्रीकृष्ण ने गीता में योग किसे कहा है ? तो जवाब होगा-'समत्वं योग उच्यते ।' समत्व ही योग है । वह समत्व यही है कि व्यक्ति हर्ष एवं शोक दोनों ही परिस्थितियों में अपने आपको मौन और तटस्थ रखे। वह व्यक्ति कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं बंधता । परिस्थितियाँ तो बदलेंगी; समय तो अपनी करवट बदलेगा। न अनुकूल परिस्थितियाँ हमेशा रही हैं और न प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही हमेशा टिकी हैं। सही तौर पर अपने जीवन को समायोजित, संतुलित, सुखी एवं समृद्ध रखने के लिए जीवन में यह तीसरा सूत्र आवश्यक है कि परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी रहें, व्यक्ति हर परिस्थिति में सम रहे, शांत रहे, प्रसन्न रहे। यदि हम परिस्थितियों के प्रति सम न रहे तो अनुकूलताएँ घमंड को जन्म 50 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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