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________________ पहले पिताजी से एक सवाल पूछना चाहता हूँ। मेरा सवाल यह है कि पिताश्री ! आप अब तक एक हज़ार साल जी चुके हैं। क्या आपके जीवन में तृप्ति आ चुकी है ? क्या आपके मन की कामनाएँ तृप्त हो चुकी हैं ? ययाति ने अपने बेटे का प्रश्न सुनकर कहा–'बेटे,अब तुमसे क्या छिपाना । मुझे तो अभी भी यही लगता है कि और जीना चाहिये, और बटोरना चाहिये, और भोगना चाहिये। मन की दुर्दशा ही ऐसी है, लेकिन अब तुम मत मरो बेटे । अब तुम्हारी जगह मैं मर जाता हूँ।' यह सुनकर बेटे ने कहा-'पिताश्री, आप अब और सौ साल जीओ। मैं जीवन की समझ पा चुका हूँ। जो व्यक्ति हज़ार साल तक हज़ार रानियों के साथ जीकर भी अपने जीवन से तृप्त नहीं हो पाया, मैं सौ साल जीकर कौन-सा तृप्त हो जाऊँगा।' कहते हैं तब मृत्यु भी एक किनारे हट गई और एक जीवित व्यक्ति स्वर्ग लोक पहुंचा। जो व्यक्ति अपनी मृत्यु को मार देते हैं, वे जीवित ही पहुँचते हैं । मृत्यु उन्हें मार नहीं पाती । इसीलिए तो कृष्ण ने गीता में यह महान् सूत्र दिया नैनं छिदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ इस आत्मा को न तो शस्त्रों से काटा जा सकता है, न ही इसे आग में जलाया जा सकता है । न जल इसे गला सकता है और न इसे हवा में सुखाया जा सकता आत्मा तो मुक्त है, जलेगी तो काया जलेगी । आत्मा चिताओं में से सौ-सौ बार गुजरने पर भी जीवित रहती है, अदाह्य रहती है । एक आदमी को चाहे सौ-सौ छुरे घोंप दो, फिर भी आत्मा तो अकाट्य रहती है । व्यक्ति को एक बार नहीं, सैकड़ों बार पानी में डुबोया जाये, तो भी आत्मा नहीं गल सकती। अशोष्य रहती है । आत्मा तो अकाट्य, अछेद्य, अभेद्य है । इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा-यहाँ जितने भी दुःशासन खड़े हैं, उनको जड़ से उखाड़ फेंको, अर्जुन ! ___ यह मृत्युलोक है । यह शरीर तो ठीक ऐसे ही है, जैसे पुराना वस्त्र उतार कर रख दिया जाता है और नया वस्त्र पहन लिया जाता है । इसलिए तुम घबराओ मत, न युद्ध से भयभीत होओ। महावीर कहेंगे अपने भीतर की दुष्प्रवृत्तियों को जितना जल्दी हो परास्त और पस्त कर सको, कर दो। इसी में तुम्हारा पौरुष, चुनौती का सामना | 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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