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संप्रदाय, जाति और रंगभेद को दरकिनार करो । पापी - पुण्यात्मा के भेद को अहमियत मत दो । पाप से घृणा करो, पापी से नहीं । जैसे सूरज-चांद सबके लिए हैं, सरिता - सागर सबके लिए हैं, पेड़-पौधे सबके लिए हैं, फिर परमात्मा का बंटवारा क्यों ? वह सार्वभौम है, सबके लिए है। जन्म से आदमी चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र ही क्यों न हो, हर आदमी को भगवान के श्रीचरणों में जाने का पूरा-पूरा हक़ है । अगर किसी धर्म या संप्रदाय ने यह उसूल स्थापित किया है कि अमुक आदमी ही धर्मस्थलों पर जा सकता है, अमुक आदमी नहीं जा सकता है, तो वह धर्म या वह संप्रदाय स्वयं परमात्मा के साथ विश्वासघात कर रहा है । अगर यह मानते हो कि यह धरती उसी की बनाई हुई अनुपम कृति है, तो कौन ऊँचा, कौन नीचा, कौन काला, कौन गोरा, कौन छूत और कौन अछूत ?
मुझे याद है । एक कोढग्रस्त बूढ़ा आदमी किसी मंदिर के दरवाज़े पर पहुँचा, तो मंदिर के पुजारी ने उसे भीतर जाने से रोक दिया । बूढ़े ने जब कारण पूछा, तो पुजारी ने कहा- तुम्हारे भीतर जाने से कहीं भगवान कुपित न हो जायें, क्योंकि भगवान का यह मंदिर तुम जैसे पापी लोगों के लिए नहीं है । इस कारण तुम अंदर नहीं जा सकते । बूढ़ा हंसा और उसने कहा- भाई, मंदिर तो पापियों के लिए ही होता है, पुण्यात्माओं के लिए तो संसार में और बहुत से स्थान पड़े हैं । वे जहाँ जाना चाहें, जायें। यह मंदिर ही तो वह स्थान है, जहाँ पापी अपने पापों का प्रक्षालन कर सकते हैं। अगर मंदिरों को पापियों के लिए बंद कर दिया, तो फिर पापी अपने पापों के निस्तार के लिए कहाँ जायेंगे ? यह मंदिर तो उन लोगों के लिए है, जिनको समाज ने अभिशाप देकर अलग कर दिया है । उनके लिए मंदिरों के द्वार खोलो, ताकि वे यहाँ आकर अपने पापों का प्रायश्चित कर सकें और इस जन्म में नहीं, तो कम-से-कम अगले जन्म में ऊंचे गुणों को धारण करते हुए ऊंचे धामों को उपलब्ध कर सकें ।
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मुझे कल ही गीता भवन से जुड़े एक सज्जन ने बताया कि इसी संस्था से जुड़े एक हरिजन की बेटी का ब्याह था । उस हरिजन ने उस सज्जन को भी ब्याह में आमंत्रित किया । उसने इतने भाव से अनुरोध किया कि वह सज्जन उसके अनुरोध को इंकार न कर पाया । उस हरिजन व्यक्ति ने कहा कि मैं हक़दार तो नहीं हूँ कि मैं आपको न्यौता दूँ, क्योंकि मैं अछूत समझा जाता हूँ। फिर भी मैं आपको अपनी बेटी के ब्याह में सादर निमंत्रित करता हूँ। वे सज्जन उस हरिजन की बेटी के ब्याह में गये । वहाँ उन्होंने बड़े प्रेम से एक मिठाई स्वीकार की और
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बूँद चले सागर की ओर | 217
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