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________________ के बाद और किसी तरह का त्याग करने की आवश्यकता नहीं रहती । अगर छिटपुट त्याग करते हो, तो वह त्याग एक श्रृंखला का हिस्सा भर होगा, जबकि कृष्ण त्याग का वह मार्ग बतला रहे हैं, जिस मार्ग से गुजरने के बाद आदमी को और कोई भी त्याग करने की ज़रूरत नहीं रह जाती । यह परम त्याग का पथ है । व्यक्ति सर्वधर्मों का परित्याग करके परमात्मा के श्रीचरणों में चला जाये । भगवान कहते हैं - सर्वधर्मान् परित्यज्य - सारे धर्मों का परित्याग करके तुम मेरी शरण में आ जाओ । धर्म यानी जिसे तुमने धारण कर रखा है, धर्म यानी जिसने तुमको धारण कर रखा है । कृष्ण धर्म के परित्याग का आह्वान कर रहे हैं, यह एक जबरदस्त बात है । एक ओर हमसे धर्म का त्याग करवाना चाहते हैं और दूसरी ओर हमें धार्मिक बनाना चाहते हैं। बड़ी गौरतलब बात है यह । धार्मिकता का संबंध धर्मों के त्याग से है । बड़ी विचित्र क्रांति कर रहे हैं कृष्ण । धर्म का त्याग करवाकर तुम्हें पापों से मुक्त करने का विश्वास दे रहे हैं । धर्म का त्याग करो, धर्म को तिलांजलि दो, धर्म से ऊपर उठ जाओ । धर्म यानी शरीर का धर्म, धर्म यानी मन और इन्द्रियों का धर्म, मन की चंचलताओं और वृत्तियों का धर्म, रस और विषय का धर्म । कृष्ण इन जड़ से जुड़े धर्मों के त्याग की बात कर रहे हैं । नश्वर शरीर के विकृतिमूलक धर्मों के त्याग की बात कर रहे हैं । धर्म यानी टेव, धर्म यानी आदत, धर्म यानी स्वभाव। तुम अच्छे हो या बुरे, यह बात गौण कर दो। अगर अच्छे हो, तो ठीक । बुरे हो तो उसकी चिंता वह भगवान करे जो हमें अपने घर आने का निमंत्रण दे रहे हैं। हम तो जैसे हैं, वैसे हैं, जब शरणागत ही हो गये, तो हमारे जान-माल की रक्षा करना, हमारे प्राण और प्रण की रक्षा करना उसका दायित्व है । 'आमि संन्यासी मुक्ति बलिया' - हम तो मुक्ति के पागल संन्यासी हैं। हम ठहरे विभीषण, चले आये हैं राम के दरबार में। अब हमारे लिए क्या करना है, यह राम जाने । हम सत्य के खोजी गौतम, महावीर जाने हमारा उद्धार और निर्वाण कैसे करवाना है । हम ठहरे आनन्द, बुद्ध जाने बुद्धत्व का कमल कैसे खिलाना है । 1 कृष्ण कहते हैं - सर्वधर्मान् परित्यज, सारे धर्मों का त्याग कर दो। सारे धर्मों का त्याग करके मेरी शरण में चले आओ । तो त्याग दो हिन्दू-जैन की बाड़ाबंदी को, इस्लाम-ईसाई की कट्टरता को, यहूदी - पारसी की चारदीवारी को । परमात्म-शरण ही तुम्हारा परम धर्म हो । 216 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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