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________________ श्रद्धा में अगर संदेह का घुन लग जाये, तो श्रद्धा ही मार्ग में बाधक और अवरोधक बन जाती है । श्रद्धा को संदेह की दीमक लग जाये, तो शिखरों को ढहते भी वक्त नहीं लगता। जिस श्रद्धा के वशीभूत होकर कृष्ण गिरधारी बन जाते हैं और गिरीश्वर को अपनी अंगुली पर धारण कर लेते हैं, अगर वह श्रद्धा विशृंखलित और विखंडित हो जाये, तो पहाड़ के पहाड़ भी धराशायी हो जाते हैं। श्रद्धा जब किसी मकान को बनाने लगती है, तो बनाते-बनाते एक अरसा गजर जाता है, लेकिन संदेह जब अपनी सूई की नोंक से मकान को कुरेदना प्रारम्भ करता है, तो पता ही नहीं चलता और मकान खंडहर में तब्दील हो जाता है। मनुष्य का अपना जैसा स्वभाव होता है, उसकी जैसी दैवीय और आसुरी गुणों की प्रकृति होती है, वैसा ही मनुष्य की श्रद्धा का रूप होता है। मनुष्य की श्रद्धा सात्विक भी हो सकती है, राजस भी हो सकती है और तामसिक भी हो सकती है । जीवन में अगर तुम देवत्व को जीते हो, तो तुम्हारी श्रद्धा देवत्व की ओर बढ़ेगी, यदि राजसी गणों की प्रवृत्ति है, तो श्रद्धा यक्ष और किन्नरों पर जाकर समाप्त हो जायेगी । अगर जीवन में तामसिक प्रवृत्तियाँ ज्यादा हैं, तो मनुष्य की श्रद्धा भूत-प्रेत और राक्षसों पर जाकर ही केन्द्रित होगी । जब श्रद्धा होगी, तो श्रद्धा के साथ आराधना तो अवश्यमेव होगी । अंतर केवल इतना ही पड़ेगा कि किसी की श्रद्धा देवत्व से जड़ेगी और किसी की श्रद्धा का संबंध यक्ष-भूत-प्रेतों की आराधना से होगा। देवत्व की आराधना के लिए जीवन में देवत्व का होना अनिवार्य है और शैतानियत की उपासना बगैर शैतानियत के पूर्ण हो जाये, यह नामुमकिन है । इंद्रजीत की आराधना का केन्द्र राम का वध है, तो राम की आराधना का हेतु अधर्म का विनाश और धर्म का अभ्युत्थान है । जैसी हमारी प्रवृत्ति और प्रकृति होगी, वैसी ही हमारी श्रद्धा मूर्त रूप लेगी। श्रद्धा के मायने किसी भी व्यक्ति या तत्त्व को मानना नहीं है, वरन् उसके प्रति अपने आपको मिटा देना है । श्रद्धा तो तब जीवित होती है, जब व्यक्ति किसी के प्रति पूरी तरह निःशेष हो जाता है, विसर्जित हो जाता है । ठीक ऐसे कि जैसे सरिता सागर में जाकर समाविष्ट हो जाती है, नमक जल में जाकर घुल जाता है, अपने आपको किसी और के प्रति मिटा ही डालता है। मानना तो केवल आरोपण हुआ। जैसे कि कागज़ के फूलों को तुम असली फूल कह दो, लेकिन श्रद्धा तो 202 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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