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________________ 1 बना है, फूट ही जाता है । और इस तरह शिखर की यात्रा के लिए निकला साधक बीच के पूजा-पाठ और रस- डुबकियों में ही स्वर्ग समझ लेता है । कृष्ण सावधान कर रहे हैं, बेटे ! चूक गए। मन ने जिसे स्वर्ग का साम्राज्य जाना, वह नरक का द्वार है । ऊपर-ऊपर स्वर्ग लगता है, मगर नरक के दरवाजों का श्रृंगार कुछ ऐसा किया होता है कि स्वर्ग लग ही जाता है और इस तरह व्यक्ति चक्कर में पड़ जाता है । क्रोध, लोभ, काम के बबूल में यह तन की, मन की चदरिया फंस जाती है 1 1 I मनुष्य को काम बड़ा रस देता है, ऐसे ही कि जैसे कोई शहद का छत्ता हो और एक-एक बूंद उसमें से गिरती है। आदमी को बड़ा रस आता है । मनुष्य स्वयं ऊर्जा का पिंड है, ऊर्जा का समूह है, लेकिन वह अपनी ऊर्जा को इस काम के दरवाजे पर जाकर खर्च कर डालता है, अपव्यय कर देता है । जिस ऊर्जा का कार्य खिलावट होना चाहिये था, वही ऊर्जा उसकी गिरावट में सहयोगी बन जाती है । मनुष्य को लगता है कि अगर मैंने काम के नरक के दरवाजे का सेवन कर भी लिया, तो क्या फ़र्क पड़ा। भले ही उसे ऐसा अहसास हो, लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। एक बीज एक बरगद को जन्म दे सकता है, एक अणु बम पूरे नागासाकी को, हिरोशिमा को नष्ट कर सकता है । विज्ञान कहता है कि एक अकेले मनुष्य के पास चार हज़ार मनुष्यों को जन्म देने की ऊर्जा और क्षमता समाई हुई है। मनुष्य एक-एक अणु की मूल्यवत्ता को पहचान ही नहीं पाता । अगर ऊर्जा का विस्फोट बाहर की तरफ़ होगा, तो कोई नागासाकी ही ध्वस्त होगा और अगर ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण हो जाये, तो चेतना के लिए मुक्ति के मार्ग खुल जायेंगे, देवत्व के द्वार खुल जायेंगे, बुद्धत्व का आभामंडल विकसित हो जायेगा । काम मनुष्य का पहला नरक का द्वार है । काम ही तो वह बंधन है, जो मनुष्य को संसार से बांधे रखता है । फ्रायड तो कहता है कि मनुष्य का मूल संवेग ही है । अगर मनुष्य के अन्तःकरण से काम की वृत्ति समाप्त हो जाये, तो उसकी जन्म-जन्मांतर की जीवेषणा ही बुझ जाये । कारण, काम ही मनुष्य को जीने के लिये प्रेरित करता है । फ्रायड, जिसने दुनिया को अपना मौलिक मनोविज्ञान और दर्शन दिया उसका निष्कर्ष यह है कि काम मनुष्य का मूल संवेग और मूल प्रेरणा है । काम ही सुख है, काम ही रस है 1 मनुष्य में सोते-जागते, उठते-बैठते, हर समय काम की धारा जारी रहती 194 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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