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________________ अर्थात काम, क्रोध और लोभ-ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं, जो आत्मा को नाश करने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिये। मनुष्य तो एक पथिक है, एक राहगीर है, महायात्रा पर निकला हुआ एक महान् यात्री है । इस जीवन-यात्रा में हर आदमी देवत्व की तरफ़ बढ़ रहा है । देवों की टोलियाँ, देवत्व की रश्मियाँ अगवानी करने के लिए खड़ी हैं, लेकिन हम वहाँ पहँचें उससे पहले थोड़ी बाधाएँ, थोड़े खतरे हैं । स्वर्ग की ओर जाने वाला रास्ता नरक के बीच में से गुजरता है। हम स्वर्ग तक पहँच तो जायेंगे, मगर नरक के दरवाजों से हमें अपने आपको बचाना होगा, तभी इस महायात्रा की मनचाही मंजिल मयस्सर हो पायेगी। ___ मैंने सुना है : एक बार शिखर के मन्दिर से, नीचे तलहटी पर यह संदेश आया कि भगवान के घर में कुछ पुजारियों की ज़रूरत है । तलहटी पर जो सद्गुरु रहते थे, उन्होंने एक साथ सौ शिष्यों को शिखर की ओर रवाना कर दिया। लोगों ने पूछा कि भगवन, ऊपर तो दो-चार पुजारियों की ज़रूरत होगी। आपने तो एक साथ सौ शिष्यों को भेज दिया। सद्गुरु ने कहा-मैंने सौ शिष्य भेजे हैं, मगर जब ऊपर से संदेश आयेगा, तो पता चल जायेगा कि वहाँ कितने शिष्य पहंचे हैं? ऐसा ही हुआ। कुछ दिनों बाद यह संदेश मिला कि ऊपर कोई चार-पांच पुजारी पहुंच गये हैं। यह मार्ग ही ऐसा है कि कोई विरला ही पहुँच पाता है । बाकी के सब तो नरक की भूलभुलैया में ही भटक जाते हैं । शिखर की ओर रवाना तो सौ शिष्य हुए, लेकिन पहुँचे चार-पांच ही, क्योंकि कुछ तो थक गये, इसलिए बीच में ही रुक गये। कुछ को रास्ते में सौन्दर्य ने ऐसा लुभाया कि वे उसमें ही रच-बस गये । बाकी के लोगों को यश और पैसे की भूख ने ऐसा उलझाया कि वे रास्ते के ही होकर रह गये । बीच में आने वाले पड़ाव, बीच में आने वाले पैसे के गांव, प्रतिष्ठा के गांव, सौन्दर्य के गांव आदमी को बीच में ही अटका देते हैं, भटका देते हैं। कोई-सा ही आदमी वहाँ तक पहुँच सकता है। महामार्ग पर माया सौ रूपलेकर आती है महापथिक को उलझाने के लिए। कोई मेनका और उर्वशी आए और आदमी उस माया में न उलझे, यह कठिन है । वह रूप-दर्शन, उसका स्पर्श, उसकी संवेदना ! चित्त न जाने किन परमाणुओं का देवत्व की दिशा में दो कदम | 193 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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