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________________ के व्यवहार हैं । हम क्यों समझें कि शरीर माटी से निर्मित है । निश्चय ही शरीर माटी है, लेकिन हम इस माटी को हेय नहीं कह सकते, क्योंकि इस माटी में एक दीये का रूप लेकर ज्योति को धारण और प्रकट करने का सामर्थ्य भी है। यह माटी ही एक मन्दिर का रूप लेती है और इसी माटी के मन्दिर में उस मन्दिर का देवता रहता है । एक बात तय है कि हम देवता के जितना मूल्य इस मन्दिर को नहीं दे सकते। मूल्य मन्दिर का भी है और उसमें रहने वाले देवता का भी है। ज्योति का तो मूल्य है ही, जिस डगर पर जाकर यह ज्योत जल रही है, जिस पात्र में यह ज्योत मुखरित हो रही है, उस डगर, उस पात्र का भी मूल्य है । इसको अगर निर्मूल्य समझोगे, तो अपने आपसे प्रेम नहीं कर पाओगे, अपने आपको मूल्य न दे पाओगे। ___गीता तो कहती है कि देह और आत्मा दोनों ही भगवान के अवदान हैं । दोनों ही कृष्ण की कृपा के ही परिणाम हैं । देह अगर शब्द है, तो आत्मा उस शब्द में से प्रकट होने वाला अर्थ है । काया पुष्प है, तो आत्मा उस पुष्प में से प्रकट होने वाली सुवास है । यह शरीर अगर वीणा है, तो आत्मा उस वीणा में से झंकृत होने वाला संगीत है । यह शरीर तो तुम्हें परमात्मा ने दिया है, यह जन्म तुम्हें प्रकृति से मिला है। इसको बड़े धन्यवाद के साथ स्वीकार किया जाये । अहोभाव से, मुस्कान से, साधुवाद से भरकर । जब तक यह जीवन है, तब तक बड़े प्रेम से, बड़े भक्तिभाव से, बड़े अनासक्ति के दृष्टिकोण से इस जीवन को जीओ। जीवन के अन्तिम चरण में जब प्रकृति हमारे द्वार पर दस्तक देने को आये, इस काया को वापस लेने को आये, तो बड़े ही अहोभाव से इस काया को परमात्मा को लौटा देना। जिस थाली को बजाते हुए आपने संतान को स्वीकार किया है, उसी थाली को बजाते हुए देह परमात्मा को समर्पित कर देना । समर्पित न करो, तब भी मौत तो लेकर ही जायेगी, पर मौत ले जाने को आये, उससे पहले ही तुम अपने को समर्पित कर देना। परमात्मा को कुछ नहीं चाहिये, उसे तो केवल समर्पण चाहिये । आत्मा को भी समर्पित कर दो और जो काया सर्प की केंचुली की तरह नीचे गिर रही है, वह भी उसे समर्पित कर दो। भौतिक पदार्थ भी उसे समर्पित कर दो और जीवन का आध्यात्मिक पदार्थ भी उसे सौंप दो। हों निर्लिप्त,ज्यों आकाश| 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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