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था कि जो कागज़ का गुलदस्ता मेरे हाथों में सुपुर्द किया गया था, वह केवल दृश्य था, लेकिन पौधे में खिले हुए फूलों में केवल दृश्य ही दिखाई नहीं दे रहा था, वह अदृश्य भी था, जो कागज़ के फूलों में नहीं हो सकता। ___मेरे संबोधन उस अदृश्य के लिए हैं । दृश्य तो हर किसी की दृष्टि में होता है। मैं तो आपको अथाह गहराई तक ले जाना चाहता हूँ, जो हर दृश्य के पार होती है, जो हर दृश्य का दृष्टा और ज्ञाता होता है । असली फूलों तक पहुँचना है, तो असली फूलों की तरह खिलना जरूरी है । कागज़ के फूलों की तरह जिंदगी जी भी ली तो जिंदगी के नाम पर हमने लाश को ही ढोया है। हमने केवल शव को जीया है, शिवत्व को नहीं जी पाये।
जिंदगी जिंदादिली का नाम है,
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जीया करते हैं । जिन मनुष्यों के पास अपनी कोई आत्मा ही नहीं है, उस आदमी का जीवन शव से कैसे पृथक कर पाओगे? जीवन तो जीवंतता का नाम है, सजगता का नाम है, प्राणवत्ता का नाम है, आनन्द-भाव का नाम है । मुर्दे बनकर जी भी लिये तो उसे कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती । तुम वंचित बनकर जीये।
जीवन केवल शरीर ही नहीं है। जो दृश्य भाग है, वह शरीर है, लेकिन जीवन केवल शरीर नहीं है। जीवन शरीर और आत्मा दोनों का संयोग है, नदी-नाव का संयोग। नदी का भी मूल्य और नाव का भी मूल्य, शरीर का भी मूल्य और आत्मा का भी मूल्य । न शरीर को गौण किया जा सकता है और न आत्मा को ही गौण किया जा सकता है। शरीर हो हेय, तुच्छ या निस्सार मत समझो, क्योंकि यह शरीर सीधा तुम्हें प्रकृति और परमात्मा से मिला है। जैसे मन्दिर में पुजारी द्वारा दिये जाने वाले प्रसाद को तुम श्रद्धा से स्वीकार करते हो, शीश तक ले जाकर स्वीकार करते हो । शरीर परमात्मा का तुम्हें महान् प्रसाद है, अनुग्रह का फूल है । प्रकृति और परमात्मा से मिले हुए, उसके इस प्रसाद को बड़े प्यार से, बड़े अहोभाव से, बड़ी श्रद्धा से स्वीकार करो । इसे मैल समझकर, माटी समझकर, मृत्यु की ओर बढ़ने वाला राहगीर समझकर, इसको तुच्छ मत कहो। इसका भी अपना मूल्य, अपना अर्थ है ।
शरीर तो एक सौगात है, एक उपहार है । शरीर है, तो ही जीवन और जगत
152 | जागो मेरे पार्थ
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