SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाहर खींच लाया । वह बेहोश थी। हमने मिलकर उसके शरीर से पानी निकाल दिया । मैंने उसके आसपास आग जला दी, ताकि गर्माहट से उसकी ठंडक दूर हो जाये। उसने कहना जारी रखा कि हमारी झोंपड़ी छोटी थी, इसलिए हम सबको सटकर ही सोना पड़ा। हम दोनों हमउम्र थे। मगर मेरे मन में यह विचार, यह दुर्विकल्प पैदा नहीं हुआ कि इस लड़की के शरीर पर इतना गहना है, यह मैं चुरा लूं या इसके साथ चाहे जो कर लूं । आज मैं पैंसठ वर्ष का हो गया हूँ । आज से पैंतीस साल पहले पाप नहीं जगा, लेकिन आज कहीं पायल भी बज जाये, तो मन चंचल हो उठता है । नजर ताक-झांक करने लग जाती है। महाराज, यह ज़माना बदल गया है । बाहर से कुछ भी नहीं बदला है, मगर भीतर से बहुत कुछ बदल गया है। यह बात मैं आप लोगों से कहना चाहता हूँ । जमाना बदल गया है, लेकिन बदला क्या है, इससे हम अनजान हैं। मन में रहने वाला पुण्य बदल चुका है। अब उसकी जगह पाप आ चुका है । एक समय था जब यह समझा जाता था कि जब तक हमारे द्वार पर कोई याचक आकर दो रोटी न ले जाये, तब तक हमारा भोजन करना पाप है । आज स्थितियाँ बदल गई हैं। अब तो याचक को अपशकुन समझा जाता है। सारी रामकहानी मन की है । मनुष्य का पहला मन्दिर उसका मन ही होना चाहिये । अपने मन को पड़तालो कि मन की स्थिति क्या है ? मन को पड़तालने के दो ही मार्ग हो सकते हैं । पहला, ध्यान का कि ध्यान में बैठे और मन में किस तरह के विचार, किस तरह विकल्प उठ रहे हैं, उनको देखा, ईमानदारी से उनको जाना और उनको प्रतिदिन कलमबद्ध कर लिया। यह तुम्हारी अपनी आत्मकथा होगी, जो किसी टॉल्सटॉय की आत्मकथा से अधिक प्रभावी होगी। कुछ अरसे बाद जब उसे पढ़ोगे, तो ताज्जुब करोगे कि मेरे मन में ऐसा कचरा । जीवन का परिवर्तन ऐसे होता है। अपने प्रति जागरूक होने से जीवन में बदलाव आता है। ध्यान के द्वारा अपने मन को पहचानो। दूसरा तरीका यह होगा कि रात को अगर सपना आ रहा है, तो उस सपने के प्रति सजग बनो, उसके प्रति ध्यान दो, क्योंकि कोई भी सपना, सपना ही नहीं 148 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy