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________________ 1 कहते हैं । यदि वह व्यक्ति नहीं बैठे, तो इसका एक कारण यह भी होगा कि जो स्थान आपने उसके लिए तय किया है, वह स्थान उसके योग्य न हो। इसी तरह अपने जिस मन में हम परमात्मा का आह्वान करते हैं, वह मन अभी इस स्थिति में नहीं है कि भगवान आकर इसमें अन्तर्विहार करे । कोई मुझसे अगर पूछे कि सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलयुग में क्या फ़र्क आपने देखा, तो मेरी समझ से मनुष्य जैसा आज है, वैसा ही पहले भी था, जैसा पहले था, वैसा ही आज भी है। अगर फ़र्क आया है, तो एकमात्र इस बात में कि मनुष्य के मन के परमाणु इतने अधिक विकृत हो चुके हैं कि उसका मन अब मन्दिर कहलाने योग्य नहीं रहा । शरीर पावन था और पावन है, फ़र्क आया है, तो हमारे मन के भावों में फर्क आया है, मन के संवेगों में, उद्वेगों में, विचारों और विकल्पों में फ़र्क आया है 1 जोधपुर के महाराजा सरदारसिंह के समय की बात है । जैसे आज लोग कहते हैं कि ज़माना बदल गया है, उसी तरह उस समय भी लोग यही बात कहते थे ज़माना बदल गया है, ज़माना बदल गया है। यह सुनते-सुनते राजा के कान पक गये । आखिर राजा ने सोचा कि ज़माने में ऐसा क्या बदल गया है ? उसने सारे सभासदों को इकट्ठा किया और उनसे यही प्रश्न किया, लेकिन सभी सभासद निरुत्तर । आखिर कहें, तो क्या ? राजा ने घोषणा की कि मुझे तीन दिन के भीतर इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिये । तीसरा दिन भी आया । राजा ने सभी सभासदों को इकट्ठा किया और यही प्रश्न उनके सामने रखा कि ज़माने में क्या बदला है, जो लोग बार-बार यही रट लगाये हुए हैं 1 दरबार में सन्नाटा-सा छाया था कि आखिर राजा को क्या जवाब दिया जाये । किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। इतने में ही देखा कि प्रधान ठाकुर का भंगी दरबार में झांक रहा है। राजा ने उससे झांकने का कारण पूछा, तो उसने कहा- हुजूर, मेरे सारे गुनाह माफ़ हों, तो मैं इस प्रश्न का जवाब दूं । राजा ने आज्ञा दे दी । उसने कहा- मैं कोई पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं, लेकिन मैं अपने जीवन की बात कह रहा हूँ । आज मैं पैंसठ वर्ष का हो गया हूँ । मेरे सिर के बाल सफ़ेद हो गये हैं । यह बात आज से तीस-चालीस साल पहले की है, जब मेरी झोंपड़ी के सामने नदी में बाढ़ आई थी। मेरी माँ ने उसमें बहती हुई एक युवती को देखा । मुझसे उस युवती को बाहर निकालने के लिए कहा। मैं उसे बहती नदी से 1 मन में, मन के पार | 147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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