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कह भी दिया। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी पड़ा हुआ है वह बाहर नहीं निकलेगा तब तक कछ भी नहीं होगा। इसके लिए मार्ग की चिंता न करो । मार्ग तो चाहे जो हो । जैसे विभिन्न टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर सभी नदियाँ समुन्दर में मिल जाती हैं, वैसे ही सभी लोग विभिन्न मार्गों से होते हुए वहाँ तक पहुँच जाते हैं।
तुम कहीं जा रहे हो और तुम्हें रास्ता मालूम नहीं है, तो तुम किसी से रास्ता पूछोगे। कोई राहगीर तुम्हें मिलता है और तुम उससे पूछते हो कि मुझे अमुक मंजिल की ओर जाना है, रास्ता कौन-सा होगा? उस राहगीर ने बता दिया कि फलां रास्ता है, तो तुम आगे बढ़ जाओगे। अगर तुम उस रास्ते पर आगे बढ़ गये, तो मंजिल के और करीब पहुँचोगे। वहीं अगर यह मानकर कि इस राहगीर का मुझ पर बहुत बड़ा उपकार है, आप वहीं बैठ गये । उस राहगीर की सेवा करने, उस राहगीर के अहसान का कर्ज चुकाने, तो ज़िंदगी उस अहसान का कर्ज चुकाने में ही पूरी हो जायेगी और रास्ते तथा फासले पार नहीं हो पायेंगे।
जब कई साधक लोग मुझसे मिलते हैं और मुझे लगता है कि वे मेरे प्रति बहुत मोहित होने लग गये हैं, तो मैं उन्हें कोई-न-कोई एक ऐसा झटका दे देता हूँ कि उनका मेरे प्रति जो मोह है, वह टूट जाये। जिस कारण से तुम मेरे प्रति आकर्षित हुए, मोहित हुए, उस कारण को तलाशो । अगर तुम चांद की तरफ़ जाना चाहते हो, तो मेरा काम अंगुली से चाँद को दिखाना है कि आसमान में उस ठौर चाँद है। यह मनुष्य की गुरुमूढ़ता होती है कि वह उस अंगली को पकड़कर बैठ जाये, जिसने कि चाँद दिखाया । अंगुली अर्थ नहीं रखती, अर्थ चाँद रखता है।
परमात्मा तक पहुँचाने वाले सारे मार्गों में अच्छाइयाँ भी हैं, बुराइयाँ भी हैं । अब यदि कोई रास्ता घुमावदार हो गया, फिसलन आ ही गई, कांटे गड़ ही गये, पत्थर से चोट लग ही गई, तो इसकी परवाह मत करना, क्योंकि कोई भी मार्ग ऐसा नहीं है, जिसमें कठिनाइयाँ और बाधाएँ न हों । शुरू में नहीं तो बाद में मिलेंगी और बाद में नहीं तो शुरू में मिलेंगी। रास्ते सब पहुँचाते हैं। तुम्हारा उद्देश्य तो सिर्फ़ गंगास्नान करना है, चित्त का स्नान करना है, आत्मा का प्रक्षालन करना है । अब किस घाट से जाकर गंगा में डुबकी लगाते हो, इसका क्या मूल्य, इसमें कैसी माथापच्ची । घाट अनगिनत हैं, कोई किसी के नाम का, कोई किसी के नाम का । इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किस घाट से उतरे । घाट कोई मुक्ति थोड़े ही देता है । घाट तुम्हें बांधकर न रखे तो भी बहुत समझना । उतरो, उतरकर
140 | जागो मेरे पार्थ
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