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________________ या जूही के फूलों पर उसकी नज़र नहीं जाती । क्या किया जाये, दूर के ढोल सुहावने जो लगते हैं । ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हम, मगर किसे है सलीका जमीं पे चलने का । कोटि-कोटि नक्षत्रों तक हमारी दृष्टि जा रही है, पर स्वयं का नक्षत्र अदृश्य ही रहा । सितारों तक पहुंचने वाले लोग, अच्छा होगा जमीन पर चलने का, जमीन पर जीने का सलीका आत्मसात कर लें, जीने की कला उनके हाथ लग जाये । स्वयं के सत्य से वंचित रहकर, औरों का सत्य सुन- पढ़-जान भी लिया, तो उन सत्यों को भी तर्क में, वाद-विवाद में उलझाकर असत्य कर डालोगे । बाहर की चकाचौंध ने, बाहर की चमक-दमक ने मनुष्य के भीतर के प्रकाश को ऐसा लगता है कि बुझा ही डाला है । निश्चित तौर पर बाहर के प्रकाश का मूल्य है, पर भीतर के प्रकाश की अर्थवत्ता उससे कहीं अधिक है । बाहर का अंधेरा भी कुछ काम का नहीं है और भीतर का तमस भी कोई अर्थ नहीं रखता । समृद्धि तो भीतर भी होनी चाहिये और बाहर भी होनी चाहिये, अन्यथा जीवन सुखी नहीं हो सकता । इसके लिए हर आदमी महावीर की तरह सब कुछ छोड़-छाड़कर नंगे बदन जंगलों की ओर नहीं जा सकता; हर आदमी बुद्ध की तरह अपनी पत्नी या पुत्र को त्याग कर किसी वृक्ष के नीचे साधना या आराधना के लिए नहीं बैठ सकता । उन्होंने तो जान ही लिया था कि बाहर की समृद्धि कोई अर्थ नहीं रखती । वे राजकुमार थे, उन्होंने समृद्धि को जीया था। आप लोगों ने परम समृद्धि को नहीं जीया है, इसलिए बोधि वृक्ष के नीचे आसन जमाने पर जब कोई कंकड़ भी तुम्हें आ चुभेगा तो तुम तिलमिला उठोगे । अपने आपको ही उलाहना दोगे कि घर में शान्ति से बैठे थे, कहाँ झोली-डंडा लेकर आ गये । बुद्ध जैसे लोग तो पहचान ही लेते हैं कि ये कंकड़ जितनी पीड़ा देते हैं, उससे भी अधिक पीड़ा तो राजमहल के मखमल के गलीचे देते हैं। शरीर को तो भले ही वे सुख देते हों, लेकिन अन्तर्-आत्मा तक उनकी कोई भी सुख-शान्ति नहीं पहुँची । भीतर में सुख-शान्ति के फूल न खिले, तो जगत के सुख हमें सुकून कहाँ दे पाये ! जीवन में बाह्य समृद्धि भी चाहिये और आन्तरिक सम्पन्नता भी चाहिये । दुनिया में जितने भी शास्त्र हैं, वे एकपक्षीय मिलेंगे । वे शास्त्र या तो बाह्य समृद्धि भीतर बैठा देवता | 119 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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