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अपनी एक आँख होती है । मजनूं की वह आँख, जो हजारों के बीच अपनी लैला को ढूंढ ले । अगर संसार को भी पहचानना हो, तो मन की आँख से या दिमाग़ की आँख से नहीं, इसको हृदय की आँख से देखो, क्योंकि हृदय के पास अपनी एक आँख है । उसमें अपवित्रता नहीं है । अपवित्रता मन में होती है । तुम अगर मन से पहचानना शुरू करोगे, तो तर्क-वितर्क उठेंगे और अगर हृदय में उतरकर हृदय से पहचानना शुरू किया, तो जान ही जाओगे, पहुंच ही जाओगे, पा ही लोगे ।
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परमात्मा का मार्ग हृदय का मार्ग है। देखने का मार्ग भी हृदय का ही मार्ग होता है, जिसे हम अन्तर्दृष्टि कहते हैं । जिसे महावीर सम्यक्त्व कहते हैं, उस सम्यक्त्व की इज़ाद मनुष्य के अपने हृदय में होती है । कुछ बनने या होने की चाह है, तो हृदयवान बनो । आत्मवान बनने से पहले हृदयवान बनना जरूरी है । अगर तुम हृदयवान न बने, तो तुम्हारा जीवन गुलाब के फूल की तरह न खिल पायेगा; तुम्हारे जीवन में सौहार्दता और सौम्यता नहीं आ पायेगी ।
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मन का प्रेम कलुषित होता है, विकृत होता है । मन का प्रेम अन्ततः जाकर शरीर के भाव में परिणित होता है । एक प्रेम हृदय का होता है, जिसका संबंध हृदय से हृदय का होता है । वहाँ कोई कुंठा, कोई अपावनता नहीं होती, इसीलिए तो हृदय वह स्थान है, जिसके लिए कबीर कहते हैं- " मैं तो तेरे पास रे", जिसे श्री अरविंद ने चैत्य-पुरुष कहा है । जब हम अपने हृदय में आकर प्रेम को देखते हैं, शांति को देखते हैं, करुणा से अभिभूत होते हैं, तो भले ही कोई आकर हमें क्रॉस पर लटका दे, कोई अगर हमें ज़हर के प्याले थमा दे, फिर भी हमारे मुख से ये ही शब्द निकलेंगे कि हे ईश्वर ! ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं प्रभु, इन्हें क्षमा कर ।
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अपनी ओर से सुखों को फैलाओ और दुनिया में जो पीड़ाएँ हैं, उनको अपने में ले लो । अब तक दुनिया ने केवल यही समझा है कि सेवा का तरीका एकमात्र यही है कि औषधालय चलाया जाये, कोई सेवा केन्द्र स्थापित किया जाये । यह एक महान् सेवा होगी अगर व्यक्ति अपने अन्तःकरण में दुनिया के सारे सुखों की प्रार्थना करता हुआ सुखों को फैलाएगा और दुःखों को अपनी ओर आमंत्रित करेगा । जैसे ही तुम दुःखों को आमंत्रित करोगे, वे दुःख रूपान्तरित हो जायेंगे; वे तत्काल सुख में परिणित हो जाएंगे ।
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ॐ मंत्रों की आत्मा | 101
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