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हम ही हों हमारे मित्र
क्या तुम यह सोचना पसंद करोगे कि तुम अपने मित्र बनना चाहोगे या शत्रु ! भला जब तुम किसी को भी अपना शत्रु बनाना पसंद नहीं करते तो फिर अपने आप से शत्रुता क्यों कर रहे हो? स्वयं के साथ मैत्री हो। तुम आत्ममित्र बनो। अपनी आत्मा को अच्छी और नेक प्रवृत्तियों की ओर लगाओ। यह आत्ममैत्री का पथ है। आप विरोधाभास वाली जिंदगी न जिएँ। मैं कोरे आदर्शवाद की बात न करूंगा। मैं आदर्श में विश्वास रखता हूँ, पर यथार्थ सेन अपने को अलग करना चाहता हूँ, न आपको। मैं मैत्री में विश्वास रखता हूँ। सबके साथ मैत्री और अपने साथ भी मैत्री – यही मैत्री को पूर्णता से जीना हुआ।
औरों से मैत्री रखो और स्वयं के शत्रु बन बैठो, यह कौन-सा उसूल हुआ? स्वयं से मैत्री का अर्थ है तनाव-मुक्त जिओ, प्रेम से जिओ, प्रसन्नता से जिओ। हम व्यर्थ का झूठ-सांच करने से बचें। औरों के काम आएँ, स्वार्थ से बचें। इसी सन्दर्भ में अगला सूत्र है -
एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य।
ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी।। 'अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और इंद्रियाँ ही शत्रु हैं। हे मुने ! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय विचरण करता हूँ।'
भगवान अपनी ओर से यह उद्घोषणा कर रहे हैं कि 'मैं' यथान्याय विचरण करता हूँ यानी जहाँ जैसा उचित है, वहाँ वैसा आचरण करता हूँ। मैं विचरण करता हूँ, उनको जीतकर जिनसे तुम हारे हुए हो। कौन है मनुष्य के शत्रु ? काम, क्रोध, विकार और देह के धर्म ही मनुष्य के प्रबलतम शत्रु हैं । बाहर के शत्रु जितना नुकसान नहीं पहुँचाते, उससे अधिक व्यक्ति को नुकसान अविजित कषाय और इन्द्रियों के विकार पहुँचा रहे हैं। ___ आदमी अपने शत्रुओं से जकड़ा हुआ है। वह अपने मित्रों से नहीं बंधा रहता, किन्तु वह अपने शत्रुओं से जकड़ा रहता है। शायद ही कोई व्यक्ति मित्रविहीन हो, शत्रुविहीन मिलना तो मुश्किल है। तुम जितना अपने मित्र के बारे में सोचते होंगे, उतना अपने शत्रु के बारे में भी सोचते होंगे। सपनों में भी शत्रु को ही देखते हो। सावधान ! गुलाबचन्द का शत्रु मिलापचन्द नहीं या मिलापचन्द का शत्रु कोई गुलाबचन्द नहीं। तुम ही तुम्हारे शत्रु हो, तुम्हारे विकार ही तुम्हारे शत्रु हैं।
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