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जागे सो महावीर
संभव है कि कभी मृत्यु ही न हुई हो? यह तो प्रकृति का क्रम है।' कोई कहता मेरा दादा मर गया, कोई कहता पिता, कोई पति या पत्नी और कोई कहता कि मेरा जवान पुत्र मर गया ।
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इस प्रकार घूमते-घूमते गौतमी का पूरा दिन बीत गया, साँझ ढल गयी, लेकिन वह पूरे गाँव में कोई ऐसा घर न खोज पाई जहाँ मृत्यु न हुई हो। वह अन्त में थक-हारकर एक जगह बैठकर सोचने लगी कि मृत्यु तो संसार का सत्य है, सृष्टि का सनातन नियम है। इस मृत्यु के द्वार से तो हर कोई गुजरता है। भगवान ने मुझे बोध देने के लिए ही यह उपक्रम किया है । वह वापस भगवान के पास पहुँची । भगवान ने उसे देखकर कहा, 'बेटी ! क्या तुम्हें सरसों के दाने मिल गए ?'
गौतमी बोली, 'प्रभु! मुझे सरसों के दाने तो नहीं मिले, पर जीवन का आत्मबोध जरूर मिल गया। मैंने यह जान लिया है कि संसार में ऐसा कोई घर नहीं है, जहाँ पहले किसी की मौत न हुई हो। मैंने जान लिया है कि राग-द्वेष के बीज ही जन्म-मरण की फसल के कारण बनते हैं और जब तक जन्म-मरण है तब तक दुःख से निवृत्ति सम्भव ही नहीं है । '
किसा गौतमी ने भगवान की तीन प्रदक्षिणाएँ कीं और उनके भिक्षुणी संघ में उसने संन्यस्त जीवन स्वीकार किया। वैसे तो भगवान के संघ में बहुत-सी भिक्षुणियाँ रहीं, पर किसा गौतमी और पट्टाचारी नामक दो भिक्षुणियाँ उल्लेखनीय और अभिनन्दनीय हैं। इन दोनों ने न केवल स्वयं के जीवन को निर्वाण के मार्ग की ओर अग्रसर किया, अपितु भगवान के पास जो कोई भी संत्रस्त और दुःख से पीड़ित आया, उसको भी समाधिमय किया । इसी सन्दर्भ में भगवान अपना अगला सूत्र दे रहे हैं
तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। तो तवसंजम भंड, सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो ॥
भगवान कहते हैं - 'हे किसा गौतमी, हे पटाचारी, हे मेरे श्रावक-श्राविकाओ, मेरे सन्तों, यदि तुम घोर भवसागर के पार जाना चाहते हो तो हे सुविहित! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण करो ।'
भगवान की वाणी सबके लिए नहीं है। उनकी वाणी मात्र उनके लिए है जो दुखों से संत्रस्त हैं, जिन्होंने जीवनचक्र में सुख-दुःख का अनुभव कर लिया है और जिनकी उन दुःखों से मुक्त होने की प्रबल उत्कण्ठा है। भगवान उन्हें कहते
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