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________________ ६ जागे सो महावीर यदि जन्म-मरण होंगे तो दुःख के निमित्त तो पैदा होते ही रहेंगे और जब-तब वह हर जन्म में कर्म के इन बीजों को पल्लवित और पोषित ही करता रहेगा। भगवान ने इस सूत्र के द्वारा बंधन और मुक्ति दोनों ही मार्गों को स्पष्ट कर दिया है। ___ हम लें एक प्यारी-सी घटना। हजारों साल पहले एक साध्वी हुई जिसका नाम था किसा गौतमी। उसका ‘किसा' नाम इसलिए पड़ा कि वह बहुत कमजोर थी, कृश थी। वह छोटी कही जाने वाली एक जाति में पैदा हुई, पर संयोग से उसका एक उच्चकुल के धनी युवक से प्रेम हो गया। घर वालों द्वारा अनुमति नहीं देने पर भी युवक ने किसा से विवाह कर लिया। योगानुयोग से शादी के कई वर्ष बीतने पर भी किसा के संतान नहीं हुई। घर वाले पहले से ही उसके नीचे कुल की होने के कारण नाराज थे और अब उसके संतान नहीं होने पर उसे तरह-तरह से प्रताड़ित करने लगे। किसा गौतमी एकांत में बैठकर सोचती कि इससे अच्छा होता कि किसी गरीब और नीची जाति के व्यक्ति से ही वह विवाह कर लेती। तब उसे इतनी प्रताड़नाएँ तो सहन नहीं करनी पड़तीं। पर कहते हैं कि दु:ख के द्वार भी हमेशा नहीं खुले रहते। भगवान ने सुनी और किसा गर्भवती हुई। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र-जन्म ने किसा को घर में आदर-सम्मान दिलाया। इसलिए वह पुत्र पर बहुत ही अधिक मोहित थी। वह अपना हर क्षण अपने पुत्र की सार-संभाल और उसके लाड़-प्यार में बिताने लगी। ___एक दिन किसा घर के अन्दर बैठी थी और पुत्र बाहर उद्यान में खेल रहा था। अचानक एक सर्प ने पुत्र को डस लिया। पुत्र का शरीर नीला पड़ गया। घर वालों ने बड़े-बड़े वैद्यों को भी बुलाया, पर मृत्यु को वे टाल नहीं सके। अन्त में लोगों ने सोचा कि अब बच्चे को दफना ही दिया जाए। किसा अभी भी अपने पुत्र को अपनी गोद में लिए इस आस में बैठी थी कि कोई वैद्य आएगा जो उसके पुत्र को फिर प्राणवान कर जाएगा। लोग किसा के पास पहँचे और उससे पुत्र को लेने लगे ताकि उसे दफनाया जा सके। लेकिन वह पुत्रमोह में इतनी अन्धी हो गई थी कि वह मृत पुत्र को मृत मानकर छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थी। लोगों ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं मानी। आखिरकार सब हार कर अपने-अपने मुकाम चले गए। इधर किसा इस आशा में अटकी रही कि कहीं अन्यत्र कोई ऐसा वैद्य मिल जाए जो उसके पुत्र को जीवनदान दे सके। वह नगर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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