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________________ साधना राग की, प्रार्थना वीतराग की के पास तो सौ-दो सौ साड़ियाँ होती हैं, पर किसी पुरुष के पास इतनी जोड़ी वस्त्र ! मुझे आश्चर्य हुआ। यह सब आसक्ति है, मूर्छा है, गृद्धता है। महिलाओं के पास नीली, पीली, हरी अलग-अलग रंगों की साड़ियाँ होती हैं। उनमें भी हर साड़ी पर अलग-अलग बेल-बूटे, उनके मैचिंग की ब्लाऊज और वैसी ही चप्पलें, यह सब राग के ही तो अनुबंध हैं। चप्पल पहनें, मगर इस भाव से कि वे पैर की सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं। वस्त्र पहनें, अपनी नग्नता को, निर्वस्त्रता को ढाँकने के लिए, न कि प्रदर्शन के लिए। वरना इन आडम्बरों या डेकोरेशन का कोई अन्त नहीं है। किसी व्यक्ति को आज कोई धार्मिक किताब दो तो वह स्पष्ट कह देगा कि अवहेलना होगी क्योंकि घर में जगह नहीं है। धार्मिक किताबों के लिए जगह नहीं है और कपड़े की पचास-सौ जोड़ियों के लिए जगह भी है और संभाल भी है। व्यक्ति के पास पहले से ही कई चप्पलें हों या कपड़े हों, फिर भी जब वह नए शहर जाएगा तो वहाँ से भी कुछ खरीद ही लाएगा। वस्त्रों का परिग्रह हो, पर उसकी एक सीमा हो। व्यक्ति अपनी इस मूर्छा के चलते उन्हीं कपड़ों में कोई तिलचट्टा या कॉकरोच बनता है। जमीन के प्रति मूर्छा, मकान के प्रति आसक्ति कि इस तस्वीर से मकान को सजाऊँ, नए फैशन का सोफासेट लगाऊँ, मार्बल की जमीन होनी चाहिए। ___ व्यक्ति की वीतराग, विराग या श्रावकत्व की साधना सब ऊपर-ऊपर और दिखावटी है। भीतर में तो व्यक्ति राग और द्वेष के बंधनों से जकड़ा हुआ है। जीवन की सुरक्षा के लिए मकान जरूरी है, पर व्यक्ति की चेतना का मकान कोई दूसरा ही है। कपड़ों, धन या अन्य बाह्य पदार्थो पर मूर्च्छित होना ही मिथ्यात्व है। इसीलिए भगवान ने कहा कि राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह के प्रभाव से उत्पन्न होता है। मोह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण दुःख का कारण है। जो व्यक्ति कर्मों की खेती को बन्द करना चाहते हैं, जो निर्जरा के मार्ग पर अपने कदम बढ़ाना चाहते हैं और जो अपनी मुक्ति के लिए कृतसंकल्प हैं, उन्हें राग-द्वेष के निमित्तों से, राग-द्वेष के संस्कारों और श्रृंखलाओं से बचना चाहिए। मोह और राग दोनों पढ़ने में एक जैसे लगते हैं, पर दोनों में गहरा फर्क है। मोह का अर्थ उस गहरी रागासक्ति से है जहाँ व्यक्ति को किंचित् मात्र भी बोध और विवेक नहीं रहता है। भगवान ने कहा कि कर्म जन्म मरण का मूल है....और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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