________________
धार्मिक जीवन के छह सोपान
२१९
भावना के साथ अपने अपराध स्वीकार करें कि जो गलत हुआ, उसके लिए मैं 'मिच्छामि दुक्कडं' लेता हूँ। अपने उस पाप को मिथ्या मानकर उसकी क्षमा चाहता हूँ और आगे के लिए यह संकल्प लेता हूँ कि मैं इन अपराधों से सदा बचा रहूँगा।
जब तक प्रतिक्रमण के साथ ये भाव नहीं जुड़ेंगे, तब तक व्यक्ति सुबहशाम बैठकर सूत्रों को ऐसे ही पढ़ता रहेगा जैसे किसी रेस में घोड़े दौड़ाए जाते हैं। उसे उन सूत्रों के पीछे छिपे सम्यक् अर्थ का न तो कोई बोध होता है और न ही प्रतिक्रमण के भावों का कोई अता-पता ही लगता है। बस, प्रतिक्रमण के पाठ बोलने वाला बोलता जाता है और बाकी के लोग तो उसमें तब जुड़ते हैं जब कोई नवकार का कायोत्सर्ग आए। इसके अलावा उन्हें कुछ समझ में नहीं आता। मैं नहीं जानता कि इसे प्रतिक्रमण कहा जाए भी या नहीं, जहाँ पापों के प्रायश्चित के कोई भाव नहीं होते। __मेरे अनुसार तो प्रतिक्रमण के पाठ दोहराना उतना जरूरी नहीं है, जितना प्रतिक्रमण की भावदशा को उपलब्ध होना है। व्यक्ति एकान्त में बैठकर अपनी भूलों को न दोहराने का संकल्प स्वीकर कर ले और वह यदि इन सूत्रों को न भी बोले तो भी उसका सच्चा प्रतिक्रमण हो जाता है। ___ हम प्रतिक्रमण में छह आवश्यक' संपादित करते हैं, पर क्या हममें प्रतिक्रमण में पूरे समय यह सजगता बनी रहती है कि अभी मेरे द्वारा अमुक आवश्यक पूरा किया जा रहा है ? हमें यह भान ही नहीं रहता कि कब हमने प्रथम 'सामायिक आवश्यक' किया, कब स्तवन किया और कब वन्दन। हम तो इसे भी एक काम, एक भार समझ कर तुरन्त निपटाते जाते हैं और पता भी नहीं चलता कि हमारा प्रतिक्रमण क्या-क्या बोलते और क्या-क्या सोचते हुए पूर्ण हो गया।
हमारी आदत तो वही बनी रहती है, शाम को प्रतिक्रमण और सुबह वे ही पाप । लोग सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते हैं, पर प्रतिक्रमण करने के बाद भी वे वैसे ही बने रहते हैं जैसे कि वे प्रतिक्रमण करने से पहले थे। तो फिर क्या फायदा ऐसे प्रतिक्रमण का?
मक्का गया, हज किया, बनकर आया हाजी।
आजमगढ़ में जब से लौटा फिर पाजी का पाजी॥ यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति धर्म के सौ-सौ कार्य करे। वह केवल एक-दो ही धार्मिक कार्य करे, पर वे कृत्य ऐसे हों कि वे जीवन में परिणाम प्रदान कर सकें। हमारे जीवन में, हमारे व्यवहार और स्वभाव में परिवर्तन ला सकें।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org