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________________ २१६ जागे सो महावीर तीर्थंकर पद पाने का। ज्ञानी बनने के लिए ज्ञान चाहिए, तपस्वी बनने के लिए शरीर की शक्ति अपेक्षित है, पर भक्ति करने के लिए तो मात्र ‘बाल हृदय' चाहिए। भक्त तो वही बन सकता है जो अपने आप को हर तरह से प्रभु का मानता है। रावण ने भी इस स्तवना के द्वारा, इस भक्तियोग के द्वारा ही तीर्थंकर नामकर्म बाँधा। परमात्मा की भक्ति,उनका स्तवन तो स्वयं के रूप, और शक्ति को जानने में सहायक होता है। देवचन्द्र कहते हैं - अज कुलगत केसरी लहे रे निज पद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ति भवि लहे रे आतमशक्ति संभाल॥ बड़ा अच्छा पद और बड़े ही गहरे भाव हैं। परमात्मा या वीतराग पुरुषों के दर्शन और उनकी संस्तुति चेतना को जागृत करने में कैसे सहायक होती है, इसके लिये बड़ा ही अच्छा उदाहरण दिया गया। कहते हैं, एक शेर का बच्चा अपने परिवार से बिछुड़ गया और वह भेड़ के टोलों में ही पला और बड़ा हुआ। भेड़ के टोले में रहने के कारण वह भी उनकी तरह मिमियाता। वह अपना सिंहत्व भूल ही गया। एक दिन जब वह भेड़ के टोले के साथ नदी में पानी पीने गया तो उसने अपने अक्सको, अपने वास्तविक रूप को देखा। उसे ध्यान आया, 'अहो ! में तो सिंह हूँ, मैं भेड़ नहीं हूँ। मुझमें अपार बल और शक्ति है । मैं इस भेड़ के टोले में क्या कर रहा हूँ ?' अपनी शक्ति का भान होते ही सिंह का बच्चा जोर से गर्जना करता है। उसका सिंहनाद सुनकर सभी भेड़ेंडर कर भाग जाती हैं। जैसे शेर के बच्चे को पानी में अपनी छवि देखकर अपना सिंहत्व याद आ गया, वैसे ही जब हम परमात्मा की प्रतिमा, उनकी वीतराग मुद्रा देखते हैं तो हमें भी यह ध्यान आता है कि ये भी मेरी तरह पूर्व में संसारी थे, कर्म के आवरण से घिरे थे, पर इन्होंने पुरुषार्थ कर वीतराग और परमात्म-पद को पा लिया। मैं भी यदि अपनी शक्ति का उपयोग करूँ तो परमात्मा बन सकता हूँ। मैं स्वयं सिद्धों की संतान हूँ। परमात्मा की भक्ति, उनके दर्शन व्यक्ति को उसकी वास्तविक शक्ति, अपार सामर्थ्य, उसके निजत्व और जिनत्व का बोध कराते हैं। जैसे ही सुबह आँख खुले, दो मिनट के लिये ही सही, प्रिय प्रभु की स्तुति में जुट जाओ। यह प्रार्थना तुम्हारे पूरे दिन को स्फूर्त कर उसे ऊर्जा देती रहेगी और तुम्हारे चित्त को प्रसन्नता के अहसास से भर देगी। रात को जब सोने के लिए जाओ, तब सोने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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