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मिथ्यात्व-मुक्ति का मार्ग
मिथ्यादृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है। वह बहिरात्मा है।
आत्मा के तीन स्वरूप हैं - पहला बहिरात्मा ; दूसरा अंतरात्मा और तीसरा परमात्मा। जब व्यक्ति की चेतना की प्रवृत्ति बाहर की तरफ बहे, तो यह व्यक्ति की बहिरात्म-स्थिति होती है। यदि चेतना की प्रवृत्ति का उपयोग अपने लिए हो, उसका बहाव भीतर की तरफ हो तो यह अंतरात्मा की स्थिति है। इसे हम ऐसे समझें कि जैसे कोई चिड़िया घोंसला बनाती है और उस घोंसले से दाना-पानी चुगने के लिए दिन में कहीं उड़ जाती है। यह है बहिरात्मा की स्थिति और साँझ होने पर वह फिर अपने घोंसले में लौट आती है, यह है अंतरात्मा की स्थिति। जैसे कि सूरज दिन के समय अपना प्रकाश सारी धरती पर फैलाता है और शाम होते ही किरणों को अपनी आगोश में समेट लेता है।
सूरज का बाहर की तरफ किरण फैलाना बहिरात्मा की स्थिति है और किरणों को स्वयं में समेट लेना अंतरात्मा की स्थिति है। जैसे कि कोई व्यक्ति दिन-भर काम-धंधे, लेन-देन या खाने-पीने में लगा रहता है और शाम होने पर जब घर आकर प्रतिक्रमण के लिए बैठता है तो उसकी चेतना की सारी प्रवृत्ति, स्वयं के लिए प्रवृत्त हो जाती है। स्वयं में स्वयं के लिए चेतना का लौट आना ही अंतरात्मा की स्थिति है।
जहाँ अंतरात्मा और बहिरात्मा का द्वन्द्व समाप्त हो जाता है, वहीं है परमात्मा की स्थिति।
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