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धार्मिक जीवन के छह सोपान
मेरे प्रिय आत्मन् !
जीवन में कुछ कृत्य ऐसे होते हैं जिनका संबंध हमारे व्यक्तित्व-विकास के साथ होता है । कुछ कृत्य ऐसे होते हैं जो हमारे आत्म-विकास, आत्म-स्वातन्त्र्य और आत्म-समृद्धि के आधारस्तंभ होते हैं। भगवान ने ऐसे ही कृत्यों को आवश्यक कृत्यों की संज्ञा दी है । यदि व्यक्ति दृढ़ मनोयोग के साथ इन आवश्यक कृत्यों को संपादित करता है तो वह अनिवार्यतः आत्मश्रेय को उपलब्ध होता है ।
इस संदर्भ में मैं तारीफ करना चाहूँगा उन मुस्लिम महानुभावों की जो अपने कृत्यों को संपन्न करने में हर हाल में सजग और तत्पर रहते हैं । वे अपनी नमाज अदा करने के लिए रेल्वे स्टेशन, दूकान या फिर सड़क पर भी चद्दर बिछाकर तत्पर हो जाते हैं । जब खुदा की इबादत का वक्त होता है तो वे किसी मस्जिद की तलाश नहीं करते, बल्कि जहाँ, जिस हालत में खड़ा है, वहीं झुककर सज़दा कर लेते हैं । उसको याद करने के लिए तिलक - छापे की तथा दरो-दीवारों की क्या जरूरत ?
मैं मानता हूँ कि मुसलमानों में अपने मजहब के लिए एक जुनून होता है, पर यह भी सत्य है कि धरती पर कोई भी धर्म या उसके अनुयायी अपने कृत्यों को संपादित करने में इतने दृढ़ और सजग नहीं होते जितने कि मुस्लिम लोग होते हैं।
मैं एक ऐसे घटनाक्रम का जिक्र करना चाहूँगा जो मेरी गंगोत्री-यात्रा से संबद्ध है। हिमालय की यात्रा के दौरान मुझे एक ऐसी महिला मिली जो
मूलतः
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