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________________ विवेक : अहिंसा को जीने का गुर १९९ कबीर अपने अंतिम समय में देह रूपी चदरिया को छोड़ते हुए कहते हैं, 'इस चदरिया को जैसा गुरु ने या ईश्वर ने दिया था, वैसा ही इस चदरिया को मैं छोड़ रहा हूँ। मैंने इस पर किसी भी तरह की हिंसा का अपराध या बेईमानी का दाग नहीं लगाया है।' हम इसीलिए देखते हैं कि चदरिया में कोई जीव तो नहीं है। अगर बैठते हैं तो पहले यह देखकर ही बैठते हैं। जैसे किसी व्यक्ति को सिगरेट पीने की आदत होती है तो वह तलब उठते ही सिगरेट जला लेता है। या यों समझें जैसे कि हमारे सामने कुछ महिलाएँ मुँहपत्ती बाँधे बैठी हैं, कोई जीव आ गया तो मुँहपत्ती सामने है और यदि कोई जीव न आया तो यह धर्म या परम्परा का पालन है। ऐसे ही व्यक्ति जब बैठता है तो बैठने से पहले तुरन्त अपने रजोहरण, चरवले या अन्य किसी कपड़े आदि को चला देगा, चाहे उस स्थान पर जीव हो या न हो। मूल्य आपके चरवले या रजोहरण से भूमि के प्रमार्जन का नहीं है, अपितु महत्व इस बात का है कि व्यक्ति यह विवेकपूर्वक देखे कि वहाँ जीव हैं या नहीं। यदि कोई जीवजन्तु है तभी उस स्थान की प्रमार्जना की जाए, अन्यथा अगर हम यों ही चरवले याओघेको बिना देखे फिरा देते हैं तो ऐसा करने से उसस्थान के वायुकायिक जीवों का घात हो जाता है। मूल्य है सजगता, जागरण और बोध का। इस यतना को पालने के लिए भगवान अपनी ओर से एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दे रहे हैं इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा॥ भगवान कहते हैं, 'ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार ये पाँच समितियाँ और मन-वचन व काय नामक तीन गुप्तियाँ हैं। भगवान ने अपने पहले सूत्र में फरमाया कि यतना ही धर्म की माँ है। भगवान दूसरे सूत्र में कहते हैं कि अयतनाचारी को हिंसा न होने पर भी हिंसा का दोष अवश्य लगता है। तीसरे सूत्र में भगवान यतना को व्यावहारिक रूप में किस प्रकार जिया जा सके, इसके लिए कुछ सोपान, कुछ मील के पत्थर या कुछ दीपशिखाएँ स्थापित कर रहे हैं। अहिंसा और यतना के मार्ग को व्यावहारिक रूप से जीने के लिए भगवान ने अपनी ओर से आठ सोपान निर्दिष्ट किये हैं। भगवान ने श्रमण या श्रावक के एक हाथ में समिति और दूसरे हाथ में गुप्ति का दीप प्रज्वलित किया है। समिति अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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