SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्रतों की वास्तविक समझ अपरिग्रह व्रत लिया कि वह मात्र एक आने में पूरा एक दिन गुजारा करता था । आज आवश्यकता है ऐसे महान् व्यक्तियों के जीवन के बारे में चिंतन-मनन की । केवल बखानबाजी करना तो लीक को पीटना ही है । पूर्णिया की ही तरह बुद्ध के प्रमुख श्रावकों में एक था अनाथपिण्डिक। अनाथपिण्डिक भी नगर सेठ था । उसने बुद्ध के लिए इतने चैत्य - विहार बनाए कि बुद्ध जिस जगह पर भी पहुँचते, उनके पहुँचने से पहले ही उनके लिए चैत्य-विहार यानी ठहरने की जगह बनी मिलती। जब अनाथपिण्डिक मृत्यु के निकट पहुँचा तो वह बुद्ध के चरणों में उपस्थित हुआ और बोला, 'भंते! कुछ समय पश्चात् मेरा शरीर छूट जाएगा। मेरे पास जितना भी धन था, वह मैंने इस धर्मसंघ को समर्पित कर दिया। मेरे मन में यह गिला है कि मेरे पास और अधिक धन नहीं है अन्यथा मैं इस धर्मसंघ की कुछ और सेवा कर सकता और आपके लिए कुछ और चैत्यविहार बना सकता।' तब बुद्ध ने कहा, 'अनाथपिण्डिक तुम्हें कोई गिला नहीं होना चाहिए। तुमने धर्म संघ के लिए जो कुछ किया है, वह स्तुत्य है। तुम अपनी उच्च भावदशा के कारण इतिहास में अमर हो गए हो। यह धर्म संघ तुम्हारा सदा-सदा के लिए ऋणी रहेगा। तुम्हारे त्याग ने तुम्हें अमृत बनाया है।' वाराणसी के आसपास बने स्तूप, चैत्य - विहार और स्तम्भ आज भी अनाथपिण्डिक की यशोगाथा गा रहे हैं। - १८३ एक कहावत है - 'पूत कपूत तो क्यों धन संचै, पूत सपूत तो क्यों धन संचै ।' पूत यदि कपूत है तो तुम कितना भी धन संचय कर लो वह सब उड़ा देगा और यदि पूत सपूत है तो चाहे तुम कंगाल भी हो, वह महल खड़ा कर देगा। घर या दूकान के बाहर केवल शुभ-लाभ ही नहीं लिखें, वरन् शुभ- खर्च भी लिखें जिससे आप जब भी उसे देखें तो आप की चेतना लौट आए कि मुझे शुभ खर्च भी करना है। कमाने के लिए कलेजा चाहिए तो खर्च करने के लिए उससे बड़ा कलेजा चाहिए। बोली और चढ़ावे बोलते समय कुछ नहीं लगता, पर जब पैसा चुकाना होता है, तब पता लगता है। आज महावीर द्वारा प्रदत्त संदेश 'जियो और जीने दो' में एक संशोधन की आवश्यकता है। 'जियो और जीने दो' से ही काम नहीं चलेगा बल्कि आवश्यकता है कि समाज का प्रत्येक सदस्य अन्य सदस्य के जीने में सहायक बने । अब हर व्यक्ति को ‘Live & Let Live' की जगह ‘Live & Help For living' स्वीकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy