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________________ जीवन में ज्ञान की क़ीमत है। हर पहलु के ज्ञान की क़ीमत है। चित्त का दूसरा संक्लेश है अहंभाव, अस्मिता। जीवन के सारे व्यामोह, क्रोध, कषाय सभी इस अहंभाव से जुड़े हुए हैं। इसलिए आवश्यक है कि अहंभाव को विनम्र बनाया जाए। जब तक 'मैं' भाव रहेगा, अहं बना रहेगा। जब भी इस 'मैं' को किसी भी प्रकार से किसी भी रूप में ठेस पहुँचती है तो वह क्रोध से भर जाता है। क्रोधित हए अर्थात् क्लेश-संक्लेश जग गया, भीतर से अनियंत्रित हो गए, व्याकुल हो गए। ज्ञानी व्यक्ति विनम्रता का पुजारी होता है और अज्ञानी अहंकार का पुतला। अज्ञानी अहंकार का शिष्य और ज्ञानी विनय का भक्त। हमारा अहंकार सोडावॉटर की शीशी में रही हई गोली की तरह काम करता है। जैसे गोली भीतर की गैस को बाहर और बाहर की हवा को अंदर नहीं जाने देती वैसे ही हमारा अहंकार न तो दूसरों के सद्गुणों को भीतर आने देता है और न ही भीतर के दुर्गुणों को बाहर निकलने देता है। भीतर का कचरा अहंभाव के कारण बाहर नहीं निकल पाता। लोग हमारे पास आते हैं और कहते हैं उनमें कोई कमी हो तो बताएँ। लेकिन मैं जानता हूँ कोई भी स्वयं की कमी या बुराई सुनना पसंद नहीं करता। सबको सिर्फ अपनी प्रशंसा चाहिए। लेकिन याद रखें - प्रशंसा ऐसा मीठा ज़हर है, जो जितना पिएगा, उतना नुकसान होगा। इसलिए कभी प्रशंसा की अपेक्षा मत रखो अपितु अपने कार्य को बेहतर बनाने का प्रयास करो। सच्चे माता-पिता, सच्चा गुरु कभी भी अपनी संतान, अपने शिष्य की मुँह पर प्रशंसा नहीं करेगा। वे उसे कमियों की ओर इशारा करेंगे, क्योंकि वे चाहते हैं कमियाँ सुधर जाएँ। वे चाहते हैं दुनिया उनकी तारीफ़ करे, तारीफ़ों का क्या? माता-पिता अपने बच्चे को, गुरु अपने शिष्य को प्रोत्साहन अवश्य दें लेकिन कमियाँ ज़रूर बताते रहें ताकि खोट निकल जाए। सोना शुद्ध है यह वह क्या कहे दुनिया कहेगी कि सोना ख़रा है। गुरु का काम ठोकपीटकर घड़ा बना देता है। जो व्यक्ति घड़ा बनने को तत्पर है उसी व्यक्ति का गुरु की शरण में जाना सार्थक है। कबीर का दोहा है - . कबीरा गर्व न कीजिए, नेक न हँसिए कोय । अजहुं नाव समुन्द में, ना जाने क्या होय ।। कबीर कहते हैं व्यर्थ का अभिमान अपने भीतर मत पालिए और किसी की हँसी मत कीजिए, किसी का उपहास मत उड़ाइए। 'अजहुँ नाव समुन्द में- 'अभी नाव समुद्र में ही है- अभी तक तुम कुछ बन नहीं गए हो, अभी तक कुछ पाया नहीं है- 'ना जाने क्या होय'! कब किसकी नाव इस दुनिया में डूब जाए, पता नहीं चलता।व्यर्थ का अभिमान छोड़ो, न जाने कब किससे कौन-सा काम निकालना पड़ | 75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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