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________________ देते हुए देखा। वह चिता सुलगते हुए, शरीर को जलते हुए देखता है, राख देखता है, राख के फूलों को इकट्ठा करते हुए देखता है । उनको देखते उसे बोध हो जाता है कि शरीर नश्वर है, जाने वाला है, देह मरणधर्मा है, एक-न-एक दिन बिखर जाने वाला है। सबका परिणाम राख है, इसके प्रति आसक्ति और मोह व्यर्थ है। वहीं से अविद्या के बीज में से विद्या के बीज का अंकुरण होता है क्योंकि यह घटना वास्तव में घटी, ठोकर लगी, निमित्त बना और भीतर की आँख खुली, भीतर का सम्यक्त्व जगा और तब राजचन्द्र का जन्म हुआ। उन्होंने शुरू से ही शरीर को भिन्न जाना। वे अध्यात्म के शिखर-पुरुष हुए। ग़ज़ब के। ___मैं अक्सर साध्वी विचक्षण श्री जी का उल्लेख किया करता है क्योकि मेरे जीवन में भेद-विज्ञान के प्रकाश का जिसने काम किया वह साध्वीश्री ही हैं। उन्हें छाती में कैंसर की गठान हो गई थी। उसमें से खून, मवाद, पानी रिसता रहता था लेकिन उन्होंने हर दिन, हर पल, हर क्षण देह और आत्मा के भिन्नत्व का ज्ञान रखा। उन्होंने जाना कि यह देह अलग है और 'मैं' अलग हूँ। डॉक्टर्स बताते हैं कि उन्हें भयंकर पीडा होती होगी, लेकिन उन्होंने अपने चेहरे से किंचित भी इसका आभास नहीं होने दिया। सदा मुस्कुराते हुए आगंतुकों से मिलती रहीं और हाथ में रही माला से निरंतर जाप-स्मरण करती रहीं। उन्होंने भेद-विज्ञान को जिया! तब मेरे गीत की रचना हुई- 'व्याधि में भी रहे समाधि' । आज जब मेरे शरीर को कुछ अस्वस्थता होती है तो मैं स्वयं को और देह को भिन्न देखता हूँ और जानता हूँ कि जो हो रहा है वह इस शरीर को हो रहा है । आत्मा तो इन सबसे परे है उसे कुछ नहीं हो रहा, उसे कुछ नहीं हो सकता। शरीर भिन्न है, मैं भिन्न हूँ। जीवन में जो भी अनासक्ति घटित हुई है उसका कारण भिन्नत्व को जानना है। इसीलिए संबंधों के प्रति, ज़मीनजायदाद के प्रति आसक्ति नहीं बन पाई। सबसे प्रेम है, सबका सम्मान है, सबके प्रति आदर है, सभी से दुलार है, लेकिन आसक्ति के मोह बंधन नहीं है। ___ ध्यान के द्वारा व्यक्ति अपनी वृत्तियों का क्षय करे। आपने गजसुकुमाल की कहानी सुनी होगी। बताते हैं कि गजसुकुमाल ने मुनि-जीवन अंगीकार किया और जंगल में जाकर साधना करने लगे। वहाँ उनके सिर पर मिट्टी की पाल बाँध दी गई और उसमें जलते अंगारे रख दिए गए, लेकिन मुनि अपनी साधना में लीन रहे। उनका पूरा शरीर जलने लगा और रात के अंधेरे में गीदड़,लोमड़ियाँ, भेड़िये उनके शरीर के मांस को नोच-नोच कर निकालने लगे लेकिन वे साधना में अडिग रहे। जिनके नाम स्मरण मात्र से कर्मों का क्षयोपशम होता है उस साधक ने इस शरीर की नश्वरता को भलीभाँति जाना होगा, तभी इस तरह की बात मुमकिन हो सकती है। 68 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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