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________________ वास्तविक रूप से अपनी अन्तर्दृष्टि में यह ज्ञान साकार होने लगेगा कि हम सब भिन्न हैं। हम जानने लगेंगे कि माता-पिता हमें जन्म देते हैं, जन्म के माध्यम हैं। अन्यथा जन्मों से यही होता चला आ रहा है, कुछ दिनों का संयोग मिलता है, फिर नई दुनिया की ओर चल पड़ते हैं। हर जीव किसी अज्ञात लोक से आता है और फिर वापस किसी अज्ञात लोक की ओर चला जाता है। यही संसार का सत्य है। ___हम सभी को इसका बौद्धिक ज्ञान तो है लेकिन वास्तविक तौर पर नहीं है। यदि हक़ीकत में यह ज्ञान हो जाए तो आसक्ति टूट जाए। जीवन, जगत, व्यवस्था, परिस्थिति, व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ के प्रति अपने आप आसक्ति और मोह टूट जाए। संग-साथ है तो आनन्द ले रहे हैं अन्यथा यह तो छूटने-टूटने ही वाला है। नदी-नाव संयोग है। जब हम संबंधों को अलग देखने में समर्थ हो जाते हैं तो अपने शरीर को भी अपने से अलग देखने में समर्थ हो सकते हैं। जान सकते हैं कि यह शरीर और आत्मा भी भिन्न हैं । यह शरीर भी एक-न-एक दिन छूट जाने वाला है । जिन इन्द्रियों से प्रेरित होकर शुभ और अशुभ कर्म करते रहते हैं वे सब इस शरीर के साथ ही छूट जाने वाली हैं। यह मन का भी भ्रम और विभ्रम है कि एक को देखकर मन को अच्छा लगता है और एक को देखकर मन को बुरा लगता है। इस उठापटक को देखकर धीरे-धीरे मन यह जानने लगता है कि जब शरीर ही अपना नहीं है तब क्या अपना है। बुद्धि ने तो जान लिया कि यह शरीर नश्वर है लेकिन अनुभूति के तल पर, अन्तर्दृष्टि में, अन्तर्ज्ञान में, हमारी संप्रज्ञाशीलता में अभी तक यह ज्ञान नहीं आ पाया है कि शरीर हमसे जुदा है, भिन्न है, एक-न-एक दिन यह श्मशान का मुसाफ़िर हो जाने वाला है। इसलिए भेद-विज्ञान अविद्या से विद्या की ओर बढ़ने का मार्ग है। अज्ञान को तोड़ने का एक ही मार्ग है व्यक्ति आतापी बने, तपस्वी बने। वह अपनी ज्ञान-दृष्टि को हर समय जागरूक बनाकर रखे। ज्ञानी होकर जिए, पंडित होकर नहीं। शास्त्रविद् न बने, ज्ञानी बने। ज्ञानी होने के लिए बहुत अधिक पुस्तकें पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, खुद की जागरूकता बनाकर, स्मृति जगाकर, स्वयं की मक्ति की भावना को रखकर उसके प्रति संजीदा होकर जिएँ ।इन्हीं से व्यक्ति मुक्त होगा। श्रीमद् राजचन्द्र के बालवय की घटना है। उनके किसी दूर के रिश्ते के चाचा का निधन हो गया था। घर के लोग उस शव को लेकर श्मशान की ओर चले। बालक राजचंद्र भी पीछे हो लिया और एक पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ से देखने लगा कि क्या हो रहा है, ये लोग क्या कर रहे हैं। उसने अपने चाचा की चिता सजते हुए देखी, मुखाग्नि 67 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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