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________________ निरोध ही योग है। अपने भटकते मन को कि छोटी-सी बात सुनी और उद्वेलित हो गए। इस उद्वेलित होते मन को, तृष्णा में उलझे मन को, लोभी जीव को रोक देना, समझा देना, निरोध कर देना योग है। हे जीव शांत रह, तू कब तक क्रोध करता रहेगा, हे जीव तू कब तक चोरियाँ करता रहेगा, कब तक तू यूँ मोह-माया में उलझा रहेगा - हे जीव अब तो शांत रह। हम चिंतन और मनन करें कि कषायों का यह उद्वेलन कब तक चलता रहेगा। अपने द्वारा अपने को समझाना ही योग है, क्योंकि हमने अपना निरोध किया। निरोध किया अर्थात् ब्रेक लगाया, अंकुश लगाया। प्रवाहित होते हुए मन पर अंकुश लगाया। एक व्यक्ति मेरे पास आया और कहने लगा कि विचित्र संयोग है मेरी तीन पत्नियाँ काल-कवलित हो गईं। अब मैं क्या करूँ। मैंने कहा - अब तुम नारी जाति पर दया करो। नहीं तो अगली का भी..... ___हमने जाना कि अंकुश लगाने का, निरोध करने का नाम योग है। पर निरोध किसका किया जाए? पतंजलि कहते हैं- चित्त की वृत्तियों का निरोध! हमारे भीतर जो बेलगाम इच्छाएँ उठती हैं- कभी यह पाऊँ, कभी वह खाऊँ, कभी यह कर लूँ, कभी वह कर लूँ - उन पर अंकुश! अरे, खुद को पहचानो। हम जानें कि हमारी आन्तरिक स्थिति क्या है, चित्त की क्या दशा है, मन की अवस्था क्या है, हमारे दिमाग के भीतर कैसा अन्तर-प्रवाह है। हम स्वयं को देखें। सबका अपना-अपना व्यक्तित्व है, सबके भीतर अपना-अपना सागर है, सबकी अपनी-अपनी लहरें हैं। हो सकता है किसी के भीतर का सागर शांत हो, किसी का भड़क रहा हो, उसमें तूफानी तरंगें उठ रही हों। हमारे मन के सागर में जो इच्छारूपी,क्रोधरूपी, तृष्णा और मोह माया के रूप में लहरें हैं उन्हें शांत करना ही चित्तवृत्तियों का निरोध है। दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। बाह्य रूप में शायद जुड़वाँ लोग एक जैसे दिखाई दे जाएँ पर भीतर से वे भी जुदा-जुदा होते हैं। अन्तर्मन सबका निजी होता है। जिस तरह सागर के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं उसी तरह इस अन्तर्मन के अनेकानेक रूप हैं। जितनी बार ध्यान करेंगे अपने चित्त की अलग-अलग अवस्थाएँ पाएँगे। सागर की लहरें कब कैसे उठती चली जाएंगी पता नहीं होता, ऐसा ही व्यक्ति का मन है। जब खाना खाने बैठता है तो टी.वी. देखते हुए बीवी के पास जाना चाहता है। बीवी के पास प्रेमिका याद आती है,प्रेमिका के पास दुकान का ख़याल आने लगता है। ये मन की तरंगें कहाँ जाती हैं पता ही नहीं चलता। हम सभी गिरगिट की तरह हैं। ये सब चित्त की स्थितियाँ हैं। 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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