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________________ सुख-दुःख आते हैं, चले जाते हैं। न सफलताएँ शाश्वत रहती हैं और न विफलताएँ हमेशा बनी रहती हैं। जिंदगी तो गोल पहिए की तरह है जो कभी ऊपर और नीचे होता रहता है। परिस्थितियाँ कभी एक जैसी नहीं रहतीं, लेकिन हम जो इन परिस्थितियों से गुजरते हैं सदा वही-के-वही रहते हैं। एक दफा महान भिक्षु बोधिधर्म अपनी धर्म-यात्रा, शांति-यात्रा के दौरान चीन गए। वहाँ चीन के सम्राट ने अपनी समस्या रखते हुए कहा - भंते, मैं क्रोध से, लोभ से परेशान हूँ, मैं अशांत रहता हूँ, कृपया आप इसका कुछ समाधान करें। बोधिधर्म मुस्कुराते हुए बोले - सम्राट, स्वयं को देखकर बताओ कि क्या इस समय भी तुम्हें क्रोध आ रहा है? एक पल सोचकर सम्राट ने कहा - नहीं भंते ! इस समय तो मुझे किसी भी प्रकार का क्रोध नहीं आ रहा है। तब बोधिधर्म ने कहा - सोचो, और मुझे बताओ कि इस समय तुम हो या नहीं? सम्राट चौंका और बोला - भंते, मैं तो हूँ। तब याद करके बताओ जब किसी दिन, किसी क्षण तुम्हें क्रोध आया था तब तुम क्रोध के साथ थे या नहीं थे - बोधि धर्म ने कहा। कैसी बातें करते हैं भंते ! मैं तो कल भी था और आज भी हूँ। जब क्रोध आया था तब भी था और आज क्रोध नहीं है तब भी मैं तो रहता ही हूँ - सम्राट ने बताया! बोधिधर्म ने कहा - वत्स, जो कभी आता है और चला जाता है वह तुम्हारा स्वभाव नहीं हो सकता, वह तुम नहीं हो सकते और जो किसी के आने और न आने के बाद भी सदा शाश्वत और सतत बना रहता है वही तुम हो। जो आता है और चला जाता है, तुम वह बाहर की तरंग नहीं हो। तुम तो तब भी थे जब क्रोध था और तब भी हो जब क्रोध नहीं है। इसलिए जो सतत है,शाश्वत है उसकी फ़िक्र करो। आने-जाने वाली तरंगों को छोड़ दो! यही योग का मर्म और रहस्य है कि व्यक्ति ने अपने जीवन से यह सीख लिया कि वह सागर की लहर नहीं है जो कभी आती है और पलक झपकते ही चली जाती है। क्रोध उठता है, चला जाता है, लोभ पल में आता है, पल में विलीन हो जाता है, घमंड थोड़ी देर टिकता है- जो आता है और चला जाता है वह बाहर की तरंग होती है। इस आवागमन के बीच में भी जो बना रहता है वह तुम हो । योग हमें यही समझ और बोध प्रदान करता है। योग का अर्थ है अपने-आप से जुड़ना; क्रोध से नहीं, जो आता-जाता रहता है उससे नहीं। आये या जाए इसके उपरान्त भी जो तत्त्व विद्यमान रहता है उससे जोड़ने का मार्ग योग प्रदान करता है। केवल बुद्धि के बल पर या शब्दों के तल पर नहीं वरन् | 35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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